________________
युनिक
८१६
(१) "न तावद्राज्यादिलक्षणायां संपति [ व्यापार. ], तस्यासंतसमुत्पत्तेः "
अर्थात् -- यदि राज्यादि नक्षणवाली सम्पदाके साथ उच्चगोवका व्यापार माना जाय-- ऐ नम्पत्तिशालियोको ही उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात नहीं बनती, क्याकि ऐसी नानिको नमुत्पत्ति अथवा सम्प्राप्ति नातावेदनीय कर्मके निमितने ती उप उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ।
(२) "नापि पत्रग्रहण योग्यता उत्रिण कियते. पचमानग्रहण-योग्यना देवभव्येषु च नवहण प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गात्रस्य उदयाभावप्रसंगात |"
अर्थात् यदि यह कहा जाय कि उच्चगोमके उदयने ग्रहणकी योग्यता उत्पन्न होती है और इसलिये जिनम पचमहानतोके ग्रहणकी योग्यता पाई जाय उन्हें ही उच्चगोभी समझा जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा माननेपर देवोमे और अभव्योमे जो कि पचमहाव्रत-गहणवे 'अयोग्य होते है, उच्चगोनके उदयका अभाव मानना पडेगा, परन्तु देवोंके उच्चगोत्रका उदय माना गया है और अभव्यो भी उसके उदयका निषेध नही किया गया है |
6
(३ न सम्यग्ज्ञानोत्पत्तौ व्यापारः, ज्ञानावरण-क्षयोपशम-सहायसम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्ते, तिर्यक्नारकेष्वपि उच्चैर्गात्रं तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात् ।"
अर्थात् - यदि सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति के साथमें ऊँच गोत्रका व्यापार माना जाय – जो-जो सम्यग्ज्ञानी हो उन्हे उच्चगोत्री कहा जाय -- तो यह बात भी ठीक घटित नही होती, क्योकि प्रथम तो ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमवी सहायता - पूर्वक सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है— उच्चगोत्रका उदय
C