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युगवीर निव
मे वांटा गया है, पिछले भागका उत्तर पहले और पूर्व विभागका उत्तर वादको दिया गया है
और वह सब क्रमश: इस
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प्रकार है :
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(१) "[इति] न, जिनवचनस्याऽसत्यत्वविरोधात् नहिरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलधानविपयीस्तेष्वर्थेषु सफलेवपि रजोजुषां धानानि प्रवर्तन्ते येनाऽनुपलं भाज्जिनवचनस्याऽप्रमाणन्चमुच्येत ।"
अर्थात् इन प्रकार गोत्रकर्मका अभाव कहना ठीक नही है, क्योकि गोत्रकर्मका निर्देश जिनवचन द्वारा हुआ है और जिनवचन असत्यका विरोधी है । जिनवचन असत्यका विरोधी है, यह बात इतने परसे ही जानी जा सकती है कि उसके वक्ता श्रीजिनेन्द्रदेव ऐसे आप्त-पुरुष होते हैं जिनमे असत्यके कारणभूत राग-द्वेषजोहादिक दोपोका सद्भाव ही नही रहता । जहाँ असत्य कथनका कोई कारण ही विद्यमान न हो वहांते असत्यकी उत्पत्ति भी नही होसकती, और इसलिये जिनेन्द्रकथित गोत्रकर्मका अस्तित्व जरूर है |
इनके सिवाय, जो भी पदार्थ केवलज्ञानके विषय होते हैं उन सबमे रागीजीवोंके ज्ञान प्रवृत्त नही होते, जिससे उन्हे उनकी उपलब्धि न होनेपर जिनवचनको अप्रमाण कहा जासके ।
** जैसा कि 'धवला' के ही प्रथम खण्डमे उद्धृत निम्न वाक्योंसे प्रकट है :
भागमो ह्यप्तिवचन प्राप्त दोपक्षयं विदु' । त्यक्तदोषोऽनृत वाक्य न ब्रूयादेध्वसंभवात् ॥ रागाद्वा द्वेपाहा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोपास्तस्यानृतकरणं नास्ति ||