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ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
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होता - यह मालूम नही होता कि - १ दीक्षायोग्य साधुआचारोसे कौनसे आचार विशेष अभिप्रेत हैं ? २ 'दीक्षा' शब्दसे मुनि दीक्षाका ही अभिप्राय है या श्रावकदीक्षाका भी ? - क्योकि प्रतिमाओ के अतिरिक्त श्रावको के बारह व्रत भी द्वादशदीक्षा - भेद कहलाते हैं, ३ साधु आचारवालोके साथ सम्बन्ध करनेकी जो बात कही गई है वह उन्ही दीक्षायोग्य साधु आचारवालोसे सम्वन्ध रखती है या दूसरे साधु आचारवालोसे ? ४ सम्बन्ध करनेका अभिप्राय विवाह सम्बन्धका ही है या दूसरा उपदेश, सहनिवास, सहकार्य और व्यापारादिका सम्बन्ध भी उसमे शामिल है ? ५ आर्याभिमत अथवा आयं प्रत्ययाभिधान नामक व्यवहारोसे कौनसे व्यवहारोका प्रयोजन है ? ६ और इनविशेषणो का एकत्र समवाय होना आवश्यक है अथवा पृथक-पृथक् भी ये ये उच्चगोत्रके व्यजक हैं ? जबतक ये सब बातें स्पष्ट नही होती, तबतक उत्तरको सन्तोषजनक नही कहा जा सकता, न उससे किसीकी पूरी तसल्ली हो सकती है और न उक्त प्रश्न ही यथेष्ट रूपमे हल हो सकता है । साथही इस कथन की भी पूरी जाँच नही हो सकती कि 'गोत्रके इस स्वरूप - कथनमे पूर्वोक्त दोषोकी सम्भावना नही है ।' क्योकि कल्पनाद्वारा जब उक्त बातोका स्पष्टीकरण किया जाता है तो उक्त स्वरूप- कथन मे कितने ही दोष आकर खड़े हो जाते हैं । उदाहरण के लिए यदि
जैसा कि तत्त्वार्थं श्लोकवार्तिकमे दिये हुए श्रीविद्यानन्द आचार्थके निम्न वाक्य से प्रकट हैं :---
" तेन गृहस्थस्य पचाणुव्रतानि सप्तशीलानि गुणव्रत शिक्षात्रत व्यपदेशभाञ्जीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्तपूर्वकाः सल्लेखनान्ताश्च महाव्रत-तच्छीलवत् ।"