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ऊँच गोत्रका व्यवहार कहाँ १
८२१ अर्थात् केवलज्ञानगोचर कितनी ही वातें ऐसी भी होती हैं जो छद्मस्थोके ज्ञानका विषय नही बन सकती, और इसलिए रागाक्रान्त छद्मस्थोको यदि उनके अस्तित्वका स्पष्ट अनुभव न हो सके तो इतनेपरसे ही उन्हे अप्रमाण या असत्य नहीं कहा जा सकता। (२) 'न च निष्फलं | उच्चैः] गोत्रं, दीक्षायोग्यसाध्वा
चाराणां साध्वाचारैः कृतसम्वन्धानामार्यप्रत्ययाभिधानव्यहार-निवन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम् । तत्रोत्पत्तिहेतुकमप्युच्चैगोत्रम् । न चाऽत्र पूर्वोक्तदोपाः संभवन्ति विरोधात् । तद्वीपरीत नीचैर्गोत्रम् । एव
गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः।" अर्थात्--उच्चगोत्र निष्फल नही है, क्योकि उन पुरुषोंकी सन्तान उच्चगोत्र होती है जो दीक्षा-योग्य साधुआचारोसे युक्त हो, साधु-आचारवालोके साथ जिन्होने सम्बन्ध किया हो, तथा आर्याभिमत नामक व्यवहारोसे जो बंधे हो। ऐसे पुरुषोके यहाँ उत्पत्तिका--उनकी सन्तान बननेका-जो कारण है वह भी उच्चगोत्र है । गोत्रके इस स्वरूपकथनमे पूर्वोक्त दोषोकी सभावना नहीं है, क्योकि इस स्वरूपके साथ उन दोपोका विरोध है-उच्चगोत्रका ऐसा स्वरूप अथवा ऐसे पुरुषोकी सन्तानमे उच्चगोत्रका व्यवहार मानलेनेपर पूर्व-पक्षमे उद्भूत किये हुए दोष नही बन सकते । उच्चगोत्रके विपरीत नीचगोत्र है-जो लोग उक्त पुरुषोकी सन्तान नही है अथवा उनसे विपरीत आचार-व्यवहार-वालोकी सन्तान हैं वे सब नीचगोत्र-पद के वाच्य हैं, ऐसे लोगोमे जन्म लेनेके कारणभूत कर्मको भी नीचगोत्र कहते हैं। इस तरह गोत्रकर्मकी दो ही प्रकृतियाँ होती हैं।
यह उत्तरपक्ष पूर्वपक्षके मुकाबलेमे कितना सबल है, कहाँ