________________
ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ?
८१९
अर्थात् - जव उक्त प्रकारसे उच्चगोत्रका व्यवहार कही ठीक बैठता नही, तब उच्चगोत्र निष्फल जान पडता है और इसीलिए उसके कर्मपना भी कुछ बनता नही । उच्चगोत्रके अभावसे नीच गोत्रका भी अभाव हो जाता है, क्योकि दोनोमे परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है – एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बनता नही । और इसलिये गोत्रकर्मका ही अभाव सिद्ध होता है ।
इस तरह गोत्रकर्मपर आपत्तिका यह 'पूर्वपक्ष' किया गया है, और इससे स्पष्ट जाना जाता है कि गोत्रकर्म अथवा उसका ऊँच-नीच विभाग आज ही कुछ आपत्तिका विषय बना हुआ नही है, बल्कि आजसे ११०० वर्षसे भी अधिक समय पहलेसे वह आपत्तिका विषय बना हुआ था - गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता पर लोग तरह-तरह की आशकाएँ उठाते थे और इस बातको जानने के लिए बडे ही उत्कण्ठित रहते थे कि गोत्रकर्मके आधारपर किसको ऊंच और किसको नीच कहा जाय ? - उसकी कोई कसौटी मालूम होनी चाहिए । पाठक भी यह जानने के लिए बडे उत्सुक होगे कि आखिर वीरसेनाचार्य - ने अपनी धवला - टीकामे, उक्त पूर्वपक्षका क्या 'उत्तरपक्ष' दिया है और कैसे उन प्रधान आपत्तियोका समाधान किया है जो पूर्वपक्षके आठवें विभाग मे खडी की गई हैं । अत मैं भी अब उस उत्तरपक्षको प्रकट करनेमे विलम्ब करना नही चाहता । पूर्व-पक्षके आठवें विभागमे जो आपत्तियां खड़ी की गई हैं वे सक्षेपतः दो भागोमे बांटी जा सकती हैं - एक तो ऊँच गोत्रका व्यवहार कही ठीक न बननेसे ऊँच गोत्रकी निष्फलता और दूसरा गोत्रकर्मका अभाव | इसीलिए उत्तरपक्षको भी दो भागो