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गुगर निगन्धावली अर्थात् सम्पन्न (ममृद्ध ) पुरुषोरी उत्पन्न होनेवाले जीयोमै यदि उच्चगोमा व्यापार माना जाय-समृद्धो एवं धनाढयोको सन्तानको तो उच्चगामी कहा जाय तो म्नेछ राजाने उत्पन्न हुए पृफर भी उन्यगोत्रका उदय मानना पटेगा-ओर ऐसा माना नहीं जाना । (प्त सिवाय, जो सम्पन्नोगे उत्पन्न न होर निर्वनामे उत्पन्न होंगे, उनके उच्चगोगका निर्गध भी करना पडेगा, और यह बात सिद्धान्तके विरद्ध जायगी।) (७) "नाऽणुवतिभ्यः समुत्पत्ती तद्व्यापार- देवप्यापपादि
केपु उच्चगाँघोदयस्य असत्यप्रसंगात् , नाभेयश्च
(स्य ? ) नीचर्गाप्रतापत्तेचा " । अर्थात्-अणुव्रतियोसे उत्पन्न होने वाले व्यक्तिोंमें यदि उच्चगोत्रका व्यापार माना जाय-अणुनतियोको सन्तानोको ही उच्चगोनी कहा जाय-तो यह बात भी सुघटित नही होती, क्योकि ऐसा मानने पर देवोमें, जिनका जन्म ओपपादिक होता है और जो अणुव्रतियोते पैदा नहीं होते, उच्चगोत्रके उदयका अभाव मानना पडेगा, और साथ ही नाभिराजाके पुत्र श्रीऋषभदेव ( आदितीर्थकर )को भी नीचगोत्री बतलाना पडेगा, क्योकि नाभिराजा अणुव्रती नही थे- उस समय तो व्रतोका कोई विधान भी नहीं हो पाया था। (८) "ततो निप्फलमुच्चैर्गावं तत एव न तस्य कर्मत्वमपि,
तदभावेन नीचैाँवमपि योरन्योन्याविनाभावित्वात्,
ततो गोत्रकर्माभाव इति ।" १३ ये सव अवतरण और आगेके अवतरण भी आराके जैन-सिद्धान्त भवनकी प्रतिसे लिये गये हैं।