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जैन कालोनी और मेरा विचार पत्र
शक्तियोको सफल बनाने अथवा उनसे यथेष्ट काम लेनेके लिये सयोगोको मिलाने और निमित्तोको जोडनेकी बडी जरूरत रहती है। इस दृष्टिसे भी जैनकालोनीकी स्थापना समाजके लिये बहुत लाभदायक है और वह बहुतोको सन्मार्गपर लगाने अथवा उनकी जीवनधाराको समुचितरूपसे बदलनेमे सहायक हो सकती है।
कुछ वर्ष हुए, जब बाबू छोटेलालजी जैन कलकत्ता मद्रासप्रान्तस्थ आरोग्यवरम्के सेनिटोरियममे अपनी चिकित्सा करा रहे थे, उस समय वहाँ के वातावरण और ईसाई सज्जनोके प्रेमालाप एव सेवाकार्योसे वे बहुत ही प्रभावित हुए थे । साथ ही यह मालूम करके कि ईसाईलोग ऐसी सेवा-सस्थाओ तथा आकर्षक रूपमे प्रचुर साहित्यके वितरण-द्वारा जहाँ अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं वहां मासाहारको भी काफी प्रोत्तेजन दे रहे हैं, जिससे आश्चर्य नही जो निकट भविष्यमे सारा विश्व मासाहारी हो जाय, और इसलिये उनके हृदयमे यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यदि जैनी समयपर सावधान न हुए तो असभव नही कि भगवान महावीरकी निरामिप-भोजनादि-सम्बन्धी सुन्दर देशनाओपर पानी फिर जाय और वह एकमात्र पोथीपत्रोकी ही बात रह जाय । इसी चिन्ताने जैनकालोनीके विचारको उनके मानसमे जन्म दिया और जिसे उन्होने जनवरी सन् १९४५ के पत्रमें मुझपर प्रकट किया। उस पत्रके उत्तरमे २७ जनवरी माघसुदी १४ शनिवार सन् १९४५को जो पत्र देहलीसे उन्हे मैंने लिखा था वह अनेक दृष्टियोसे पाठकोके जानने योग्य है। बहुत सम्भव है कि बाबू छोटेलालजीको लक्ष्यकरके लिखा गया यह पत्र दूसरे हृदयोको भी अपील करे और उनमेसे कोई