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ऊँच-गोत्रका व्यवहार कहाँ ? : ५ :
(धवल सिद्धान्तका एक मनोरञ्जक वर्णन ) षट्खण्डागमके 'वेदना' नामका चतुर्थ खण्डके चौबीस अधिकारोमेसे पांचवें 'पयडि' (प्रकृति) नामक अधिकारका वर्णन करते हुए, श्रीभूतबली आचार्यने गोत्रकर्म-विषयक एक सूत्र निम्न प्रकार दिया है :___"गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ उच्चागोदं चेव णीचागोदं चेव एवदियाओ पयडीओ ॥१२९॥"
श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी धवला-टीकामे, इस सूत्रपर जो टीका लिखी है वह बडी ही मनोरजक है और उससे अनेक नईनई बातें प्रकाशमें आती हैं-गोत्रकर्मपर तो अच्छा खासा प्रकाश पडता है और यह मालूम होता है कि वीरसेनाचार्यके अस्तित्वसमय अथवा धवलाटीका (धवल सिद्धान्त) के निर्माणसमय ( शक सं० ७३८ ) तक गोत्रकर्मपर क्या कुछ आपत्ति की जाती थी ? अपने पाठकोके सामने विचारकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करने और उनकी विवेकवृद्धिके लिये मैं उसे क्रमशः यहां देना चाहता हूँ।
टीकाका प्रारम्भ करते हुए, सबसे पहले यह प्रश्न उठाया गया है कि-"उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ?'–अर्थात् ऊंच गोत्रका व्यापार-व्यवहार कहाँ ?--किन्हे उच्चगोत्री समझा जाय ? इसके बाद प्रश्नको स्पष्ट करते हुए और उसके समाधानरूपमे जो-जो बातें कही जाती हैं, उन्हे सदोष बतलाते हुए जो कुछ कहा गया है, वह सब क्रमशः इस प्रकार है :