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युगवीर-निबन्धावली
उससे यह विपय मुझे लौकिक ही मालूम होता है - परमार्थसे इसका कोई विशेष सम्बन्ध नही है । कहा भी है कि
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स्पृश्यास्पृश्यविधिः सर्वशेषो लोकेन गम्यते ।
- इन्द्रनवी अर्थात् स्पृश्य और अस्पृश्यका सम्पूर्ण विधान लोकव्यवहारमै सम्बन्ध रखता है-वह उसीके आश्रित है और इस लिये उसीके द्वारा गम्य है ।
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लौकिक विपयो और लौकिक धर्मोके लोकाश्रित होनेमे उनके लिये किसी आगमका आश्रय लेने की अर्थात् इस बातकी ढूंढ खोज करने क आगम इस विषय में क्या कहता है, कोई जरूरत नही है | आगम के आश्रय पारलौकिक धर्म होता है, लौकिक नहीं, जैसा कि श्री सोमदेव मूरिके निम्न वाक्यले प्रकट है,
हि धर्मो गृहस्थाना लौकिक पारलौकिद भवेाऽऽचः पर स्थानागमार ॥ लौविक धर्म लौकिक जनोकी देश-कालानुसार प्रवृत्तिके अधोन होता है, और वह प्रवृत्ति हमेशा एक रूप नहीं रहा हरती । कभा देणकालको आवश्यकताओगे अनुसार भी पचायतियां निर्णय द्वारा और कभी मशीद व्यक्तियो उदाहरणोको लेकर-बराबर बदला करती है। इसलिये लौकिक धर्म भी हमेशा एक हालत मे नही रहता । वह बराबरं परिवर्तनशोल होता है और इसीसे किसी भी लौकिकं धमको सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं कह सकते । ऐसी हालत में किसी समय किसी देश के स्पृश्यास्पृश्य सम्बन्धी किसी लौकिक धर्मको लक्ष्य मे रखकर उसके अनुसार यदि किसी प्रथमे कोई विधान
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किया गया हो, तो वह तात्कालिक और तद्देशीय विधान है,