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युगवीर-निवन्धावली मेरी कितनी ही आशामोपर पानी फिर गया था। एक वृद्ध पुरुप श्मशानभूमिमे मुझे यह कह कर सान्त्वना दे रहे थे कि 'जाओ धान रहो क्यारी, अबके नही तो फिरके वारी'। फिर तुम्हारी माताके दुख-दर्द और शोककी तो बात ही क्या है ? उसने तो शोकसे विकल और वेदनाने विह्वल होकर तुम्हारे नये-नये वस्त्र भी बक्सोमेसे निकालकर फेंक दिये थे । वे भी तुम्हारे विना अब उसकी आंसोमें चुभने लगे थे। परन्तु मैने तुम्हारी पुस्तको आदिके उस वस्तेको जो काली किरमिचके वैगस्पर्म था और जिसे तुम लेकर पाठशाला जाया करती थी तुम्हारी स्मृतिके रूपमें वर्षों तक ज्योका त्यो कायम रक्खा है । अब भी वह कुछ जीर्ण-शीर्ण अवस्थामे मौजूद है-अर्से वाद उसमेले एक दो लिपि-कापी तथा पुस्तक दूसरोको दी गई हैं और सलेटको तो मैं स्वयं अपने मौन वाले दिन काममे लेने लगा हूँ। __नामकरणके बाद जब तुम्हारे जन्मकी तिथि और तारीखादिको एक नोटबुकमे नोट किया गया था तब उसके नीचे मैने लिखा था 'शुभम्' । मरणके बाद जब उसी स्थानपर तुम्हारी मृत्युकी तिथि आदि लिखी जाने लगी तब मुझे यह सूझ नहीं पड़ा कि उस दैविक घटनाके नीचे क्या विशेषण लगाऊँ। 'शुभम्' तो मैं उसे किसी तरह कह नही सकता था, क्योकि वैसा कहना मेरे विचारोके सर्वथा प्रतिकूल था और 'अशुभम् विशेषण लगानेको एकदम मन जरूर होता था परन्तु उसके लनाने में मुझे इसलिये सकोच हा था कि मैं भावोके विधानको उस समय कुछ समझ नही रहा था-वह मेरे लिए एक पहेली बन गया था । इसोसे उसके नीचे कोई भी विशेषण देनेमे में असमर्थ रहा था।