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विवेककी आँख
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इसलिये यहाँ पर जरूर हमारे कार्य-की साढे सोलह आने सिद्धि होगी। ऐसा निश्चय कर वेश्याके चले जानेपर पडितजीने पचोसे निवेदन किया कि, 'महाराज | मैं ब्राह्मण हूँ, वारह वर्ष काशीमे मैने विद्याध्ययन किया है। इस नगरकी कीर्ति और आप जैसे धर्मात्माओकी धर्ममे प्रीति और उदारताको श्रवण कर मैं आपके दर्शनोके लिये यहाँ पर चला आया हूँ। यदि आप जैसे धर्ममूर्ति और धर्मावतारोकी कृपासे यहाँ पर मेरी कथा होजाय तो बहुत अच्छा है।' इस पर पचायतमे खिचडीसी पकने लगी और लगी कानाफूसी होने । कोई कहे होनी चाहिए, कोई कहे नही, कोई कहे नही मालूम यह (पडित) कोई ठगफिरै है, इसका ऐतबार क्या ? कोई कहे नही यह व्राह्मण वहुत दूरसे आस बांधकर आया है, इसकी आस ( उम्मेद ) खाली नही जानी चाहिये । इस प्रकार आपसमे कानाफूसी होने लगी, कोई कुछ कहे और कोई कुछ। आखिरको दो-चार बडे-बूढोने सोच विचारकर कहा-"पडितजी। कुछ हर्ज नही, कलसे आपकी कथा जरूर हो जायगी, इससे अच्छी और क्या वात है जो भगवत-कथा सुननेका अवसर मिले, आप शौकसे कल अपनी कथा आरम्भ कर दीजिये।" उसी समय भाइयोको प्रगट कर दिया गया कि कलसे अमुक स्थानपर कथा हुआ करेगी। सब भाइयोको ठीक समयपर उसमे पधारना चाहिये। इसके बाद सब लोग अपने घरको चले गये और पडितजी भी एक टूटे-फूटेसे शिवालयमे ठहर गगे।
अगले दिन नियत समयसे एक घटेके बाद पडितजीकी कथा प्रारम्भ होगई। पहले दिन ही कथामे सिर्फ ४०-५० आदमी आये। पडितजी सोचते रह गये कि यह क्या हुआ ?