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मक्खनवालेका विज्ञापन
पंडितजी जिनेन्द्रदेवकी जो नीति है— नयपद्धति अथवा न्याय
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पद्धति है - और जो सारे जैनतत्वज्ञानकी मूलाधार एव व्यवस्थापिका है उसे 'जैनीनीति' कहते हैं । अनेकान्त-नीति और 'स्याद्वादनीति' भी इसीके नामान्तर है। यह ग्वालिनी के पास नही रहती, किन्तु ग्वालिनीकी मन्यन-क्रिया इसके रूपकी निदर्शक है, और इसलिये दूध-दही विलोती हुई ग्वालिनीको इसका रूपक समझना चाहिये । और यदि इसे व्यक्तिविशेप न मानकर शक्तिविशेप माना जाय तो यह अवश्य ही एक जैनदेवता है, जो नयोके द्वारा विक्रिया करके अपने सात रूप वना लेती है और इसीलिये 'विविध- नयापेक्षा' के साथ इसे 'सप्तभगरूपा' विशेषण भी दिया गया है । वस्तुतत्व की सम्यग्ग्राहिका और यथातत्व - प्ररूपिका भी यही जैनी नीति है । जैनियोको तो अपने इस आराध्य देवताका सदा हो आराधन करना चाहिये और इसीके आदेशानुसार चलना चाहिये – इसे अपने जीवनका अग बनाना चाहिये और अपने सम्पूर्ण कार्य-व्यवहारोमे इसीका सिक्का चलाना चाहिये । इसकी अवहेलना करनेसे ही जैनी आज नगण्य और निस्तेज बने हैं। इस नीतिका विशेष परिचय अनेकान्त' सम्पादकने अपने 'चित्रमय जैनीनीति' नामक लेखमे दिया है, जो खूब गौरके साथ पढने-सुनने के योग्य है । ( यह कहकर पडितजीने सेठजीको वह सम्पादकीय लेख भी सुना दिया । )
सेठजी -- ( पडितजीकी व्याख्या और सम्पादकीय लेखको सुनकर ast प्रसन्नता के साथ ) पडितजी, आज तो आपने मेरा बडा ही भ्रम दूर किया है और बहुत ही उपकार किया है । मैं तो अभीतक 'अनेकान्त' को दूसरे अनेक पत्रोकी तरह एक