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युगवीर-निवन्धावली वाँकी पोशाक डटाये हुए सज-धजके साथ विराजमान हैं, इन्द्रका सा अखाडा लगा हुआ है और एक रगीली वेश्याकी तान उड रही है। उस तानमे सब लोग हैरान और परेशान हैं, गानेको सुनकर और वेश्याके हावभावको निरख-निरखकर सब लोग वडे लटू होरहे हैं और अपनी मस्तीमे इस बातको विलकुल भूले हुए हैं कि किसीका क्या कुछ दर्जा या अधिकार है और क्या कुछ हमारा कर्तव्य व कर्म है।
भोले पंडितजी इस अद्भुत दृश्य और ठाठ-बाटको देखकर सोचने लगे कि 'यहाँके मनुष्य तो बडे उत्साही, उद्यमी और धन-पात्र मालूम होते हैं। जब ये लोग वेश्या-नृत्य जैसे पापकार्यमे ही इतना उत्साह दिखा रहे हैं तो फिर धर्म-कार्यमे तो इनके उत्साहका कुछ ठिकाना नही। आशा पडती है कि इस नगरमे हमारा कार्य जरूर सिद्ध होगा, यहाँ पर अवश्य कोई कथा थापनी चाहिये।' इधर पडितजी इस विचारमे ही उलझ रहे थे, इधर लगी वेश्यापर वारफेरसी होने। कोई एक रुपया देता है, कोई दो और कोई चार। इस प्रकार वारफेर होते-होते गणिका महारानीके सरगियेकी सरगी रुपयोसे ठसाठस भर गई। थोडी देरमे नृत्य समाप्त हुआ और वेश्याको सरगीके रुपयो समेत तीन सौ रुपये गिनकर मेहनतानेके दिये गये, घुघरू खुलवाई इससे अलग रही और वेश्याके सरगिये व तबलची वगैरहको दो-चार दुशाले और कुछ अन्य कपडे इनाममे दिये गये।
अब तो यह सब दृश्य देखकर पडितजीको पूरी तौरसे निश्चय होगया कि यहाँके भाई केवल धनाढ्य और उत्साही नही हैं, बल्कि साथमे बडे भारी उदार भी हैं और