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सन्मति-विद्या-विनोद
७३१ ज्यादा गुणकारी होता है । अत. तुम्हारे हित की दृष्टिसे अनुकूल योजना हो जानेपर मुझे प्रसन्नता हुई। धायके न आने तक गायबकरीका दूध पीकर तुमने जो कष्ट उठाया, तुम्हारी जानके जो लाले पडे और उसके कारण दादीजी तथा वहन गुणमालाको जो कष्ट उठाना पडा उसे मैं ही जानता हूँ। धायके आ जानेपर तुम्हे साता मिलते ही सबको साता मिली।
तुम धायके साथ अधिकतर नानौता दादीजीके पास, सरसावा मेरे पास और तीतरो अपने नाना मुन्शी होशयार सिंहजीके यहाँ रहो हो। जब तुम कुछ टुकडा टेरा लेने लगी, अपने पैरो चलने लगी, बोलने-बतलाने लगी और गायका दूध भी तुम्हे पचने लगा तव तुम्हारी धाय रामकौरको विदा कर दिया गया और वह अपना वेतन तथा इनाम आदि लेकर ३० जून सन् १६१६ को चली गई। उसके चले जानेपर तुम्हारे पालन-पोपण और रक्षाका सव भार पूज्य दादीजी, वहन ( बुआ ) गुणमाला और चि० जयवन्तोने अपने ऊपर लिया और सवने बडी तत्परता एव प्रेमके साथ तुम्हारी सेवा की है।
तुम अपनी अबोध-दशासे इतने अर्से तक धायके पास रही, उसकी गोदी चढी, उसका दूध पिया, उसके पास खेली-सोई और वह माताकी तरह दूसरी भी तुम्हारी सब सेवाएँ करती रही, फिर भी तुमने एक वार भी उसे 'मा' कहकर नही दियादूसरोके यह कहनेपर भी कि 'यह तो मेरी माँ है' तुम गर्दन हिला देती थी और पुकारनेके अवसरपर उसे 'ए-ए ।' कहकर हो पुकारती थी। यह सब विवेक तुम्हारे अन्दर कहाँसे जागृत हुआ था वह किसीकी भी कुछ समझमे नहीं आता था और सबको तुम्हारी ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तिपर आश्चर्य होता था।