________________
४७
सन्मति-विद्या-विनोद
७३७
विचारोको कार्यमें परिणत करनेका तुम्हे एक आधार अथवा साधन समझ रक्खा था। मैं तुम्हे अपने पास ही रखकर एक आदर्श कन्या और स्त्री-समाजका उद्धार करनेवाली एक आदर्श स्त्रीके रूपमे देखना चाहता था और तुम्हारे गुणोका तेजीसे विकास उस सबके अनुकूल जान पडता था। परन्तु मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी थोडी आयु लेकर आई हो। तुम्हारे वियोगमे उस समय सुहृद्वर प० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईने 'विद्यावती-वियोग' नामका एक लेख जैन हितैषी (भाग १४ अक ६ ) में प्रकट किया था । और उसमे मेरे तात्कालिक पत्रका कितना ही अंश भी उद्धृत किया था। ऋण चुकाना
पुत्रियो । जहाँ तुम मुझे सुख-दुख दे गई हो वहां अपना कुछ ऋण भी मेरे ऊपर छोड गई हो, जिसको चुकानेका मुझे कुछ भी ध्यान नहीं रहा। गत ३१ दिसम्बर सन् १९४७ को उसका एकाएक ध्यान आया है। वह ऋण तुम्हारे कुछ जेवरो तथा भेंट आदिमे मिले हुए रुपये पैसोके रूपमें हैं जो मेरे पास अमानत थे, जिन्हे तुम मुझे स्वेच्छासे दे नही गई, बल्कि वे सब मेरे पास रह गये हैं और जिन्हे मैने बिना अधिकारके अपने ही काममे ले लिया हैतुम्हारे निमित्त उनका कुछ भी खर्च नही किया है । जहां तक मुझे याद है सन्मतीके पास पैरोमें चाँदीके लच्छे व झावर, हाथोमे चाँदीके कडे व पछेली, कानोमे सोनेकी बाली-झूमके, सिरपर सोनेका चक और नाकमें एक सोनेकी लोग थी, जिन सबका मूल्य उस समय १२५) रु०के लगभग था। और विद्याके पास हाथोमे दो तोले सोनेकी कडूलियां चाँदीकी सरीदार, जिन्हे