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युगवीर-निवन्धावली अधिक बढ़ गई है। कोई भी समाज अथवा देश जो उत्तम बाल-साहित्य न रखता हो कभी प्रगति नही कर सकता। बालकोंके अच्छे-बुरे संस्कारोपर ही समाजका सारा भविष्य निर्भर रहता है और उन संस्कारोका प्रधान आधार वालसाहित्य ही होता है । यदि अपने समाजको उन्नत, जीवित एव प्रगतिशील बनाना है, उसमे सच्चे जैनत्वकी भावना भरना है और अपनी धर्म-सस्कृतिको, जो विश्वके कल्याण सविशेपरूपसे सहायक है, अक्षुण्ण रखना है तो उत्तम बाल-साहित्यके निर्माण एव प्रसारकी ओर ध्यान देना ही होगा। और उसके लिये यह 'सन्मति-विद्या-निधि' नीवकी एक ईंटका काम दे सकती है। यदि समाजने इस निधिको अपनाया, उसकी तरफसे अच्छा उत्साहवर्द्धक उत्तर मिला और फलतः उत्तम बाल-साहित्यके निर्माणादिकी अच्छी सुन्दर योजनाएँ सम्पन्न और सफल होगई तो इससे मैं अपनी उस इच्छाको बहुत अंशोमें पूरी हुई समझूगा जिसके अनुसार मैं अपनी दोनो पुत्रियोको यथेष्टरूपमें शिक्षित करके उन्हे समाज-सेवाके लिये अर्पित कर देना चाहता था।
१. अनेकान्त वर्ष ९, कि० ५, मई १९४८ ।