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मैं और आप दोनों लोकनाथ : १ :
एक वामनाकार भिक्षुकने किसी राज-दरबारमे जाकर यह वाक्य कहा
"अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि" 'हे राजेन्द्र । मैं और आप दोनो ही लोकनाथ हैं।'
भिक्षुकके मुखसे इस वाक्यको सुनकर राजा साहब बहुत असन्तुष्ट हुए और क्रुद्ध होकर कुछ आज्ञा देनेको ही थे कि उनकी दृष्टि उस भिक्षुकके वामनाकारपर पडी। दृष्टिका पडना था कि झटसे राजा साहबको विष्णुभगवानका वामनावतार याद आगया और यह ख्याल उत्पन्न हुआ कि कही यह साक्षात् लोकनाथ विष्णुभगवान ही तो इस रूपमे नही आये हैं। तव राजा साहब सशकित चित्त हो विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगे - ___ 'महाराज ! मैं आपके इस वाक्यका यथार्थ अर्थ नही समझ सका है। क्या आप कृपाकर मुझको यह बतलायेंगे कि मैं और आप दोनो किस प्रकारसे लोकनाथ है ? भिक्षुकने इसके उत्तरमे यह वाक्य कहा -
'वहुव्रीहिरहं राजन् पष्ठीतत्पुरुपो भवान्' 'हे राजन् । मैं बहुव्रीहि समाससे लोकनाथ हूँ ( लोका जना नाथा स्वामिनो यस्यैवविधोऽह याचकत्वात् ) जिसका प्रयोजन यह है कि याचक और भिखारी होनेके कारण सब लोग जिसके नाथ है ऐसा मैं 'लोकनाथ' हूँ और आप षष्ठी