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धीमान और श्रीमानकी बातचीत
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विद्यमान होते हुए भी एक नवीन मन्दिर बनवानेकी क्या जरूरत थी ? क्या केवल नामवरी और अपने धनकी प्रभावना ही के वास्ते आपने यह काम किया था ? अफसोस ! भाई साहब । आप किस भूलमें हैं, यह भगवत् (पच परमेष्ठी ) की पूजा और भक्ति वह उत्तम वस्तु है कि इस ही के प्रभावसे प्रथम स्वर्गका इन्द्र, कुछ भो तप-सयम और नियम न करते हए भी, एक भवधारी हो जाता है अर्थात् स्वर्गसे आकर अगले ही जन्ममे मुक्तिको प्राप्त हो जाता है। इसलिये शिथिलता और प्रमादको छोडकर आपको स्वय नित्य भगवानकी पूजा और भक्ति करनी चाहिये । आपकी पूजा और भक्तिको देखकर अन्य बहुतसे भाइयोको उसके करनेकी प्रेरणा होगी, जिसका आपको पुण्य-बध होगा। यदि आप ऐसा न करके विपरीत प्रथा ( नौकरोसे पूजन कराना) डालेंगे और कुछ दिन तक यही शिथिलाचार और जारी रहेगा तो याद रखिये कि वह दिन भी निकट आ जायगा कि जब दर्शन और सामायिक आदिके लिये भी नौकर रखनेकी जरूरत होने लगेगी और धर्मका बिलकुल लोप हो जायगा । फिर इस कलक और अपराधका भार आप ही जैसे श्रीमानोकी गर्दनपर होगा।
धोमानकी इस बातको सुनकर श्रीमानजी बहुत ही लज्जित हए और उनको स्वय भगवानकी पूजाका करना स्वीकार करना पडा और 'जैनगजट' मे नोटिसका छपवाना स्थगित रक्खा गया।
१. जैनगजट, ८-७-१९०७