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युगधीर-निवन्यावली हेममे स्वाभिमानकी मात्रा काफी थी, व्यर्थकी जिडकियां, डाटउपट एवं फटकारगे उसमा चित्त व्यथित होता था, उसे भारी कष्ट पहुँचता था, और इमलिये इस प्रकारके व्यवहारसे उसे बडी चिढ थी। इसीसे ऐने व्यवहार के मुकाबलेमे वह मनुकूलता वर्तनेके बजाय प्राय उल्टा आवरण करता था। अत मैने प्रेमीजीको भी गमगाया और उन्हें अपने व्यवहारको कुछ बदलकर "प्राप्ते तु पोडशे वर्ष पुतं मित्रवदाचरेत्" को नीतिपर अमल करने के लिये वाहा । और सायही यह भी बतला दिया कि ऐसा होनेपर तथा हेमको ज्ञानार्जनादि विषयक इच्छामओपर व्यर्थका अकुग न रखनेपर वह दुकानका अधिक काम करेगा।
चुनांचे ऐसा ही हुआ-मैं जितने दिन बम्बई रहा, पिता-पुत्रम किसी प्रकार के विसंवादकी नौबत नहीं आई, एकको दूसरेकी शिकायतका अवसर नहीं मिला और यह देखा गया कि हेम दकानका काम पहलेसे कुछ अधिक कर रहा है।
बम्बईमे हेम मेरे साथ योगासन किया करता था । योगासनोका अभ्यास उसने भी कुछ पहलेसे कर लिया था और उसकी उस तरफ रुचि बढ रही थी। वह जव भावावेशमे गर्दन हिलाकर "कोपीनवन्तः खलु भाग्यवन्त” कहा करता था तब बडा ही सुन्दर जान पडता था। मेरे बम्बईसे चले आनेके कुछ समय बाद हेमको किसी योगीका अच्छा निमित्त मिल गया और उसने कितनी ही योग-विद्याको सीख लिया, योग-विषयक वीसियो शास्त्र पढ डाले तथा बहुत-सा ज्ञान-प्राप्त कर लिया। उन दिनो मेरी भी रुचि योगकी ओर बढी हुई थी और मैं योगविषयके वहुत ग्रन्योका अवलोकन कर गया था-अभ्यासमे ५१ वर्षकी अवस्था होते हुए भी खुशीसे पौन-पौन घटे तक