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जैनजातिका सूर्य अस्त
७०९ व्यर्थ हुई । अन्तको निद्रादेवीने कुछ कृपा की और उससे थोडीसी सान्त्वना मिली।
आज उसी दुःखद समाचारको ( अनेकान्तमें ) प्रकट करने का मेरे सामने कर्तव्य आन पडा है । मैं सोचता हूँ-श्रद्धेय बाबू सूरजभानजीके सम्बन्धमे क्या कहूँ और क्या न कहूँ ? उनका शोक मनाऊँ या उनका यशोगान गाऊँ, उनके गुणोका कीर्तन करूं या उनके उपकारोकी याद दिलाऊँ, उनके कुछ सस्मरण लिखू या उनके जीवनका कोई अध्याय खोलकर रक्खू. उनके जान-श्रद्धानको चर्चा करूं या उनके आचार-विचार पर पर प्रकाश डालूं. उनके स्वभाव, परिणाम तथा लोकव्यवहारको दिखलाऊँ अथवा उनके जीवनसे मिलनेवाली शिक्षाओका ही निदर्शन करूं? चक्करमे हैं कि क्या लिखू और क्या न लिखू ।।
फिर भी मैं अपने पाठकोको इस समय सिफ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि आज जैन जातिके उस महान् सूर्यका अस्त हो गया है
(क) जो अन्धकारसे लडा, जिसने अन्धकारको परास्त किया, भूमंडलपर अपने प्रकाशकी किरणें फैलाईं, भूले-भटकोको मार्ग दिखलाया, मार्गके कांटो तथा ककर-पत्थरोको सुझाया, उन्हे दूरकर मार्गको सुधारने और उसपर चलनेकी प्रेरणा की।
(ख) जिसने लोकहितकी भावनाओको लेकर जगह-जगह भ्रमण किया, समाजकी दशाका निरीक्षण किया, उसकी खराबियोको मालूम किया और उसमे सुधारके बीज वोए ।
(ग) जिसने मरणोन्मुख जनसमाजकी नब्जी-नाडीको टटोला, उसके विकार-कारणोका अनुभव किया, उसको नाडियोमे रक्तका संचार किया और उसे जीना सिखलाया।