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सन्मति - विद्या- विनोद
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बधाईको याद कर लिया था । तुम्हारे जन्मसे कुछ दिन पूर्व ब्राह्मणियो की तरफसे यह सवाल उठाया गया कि यदि पुत्रका जन्म न होकर पुत्रीका जन्म हुआ तो इस बधाईका क्या बनेगा ? मैंने कह दिया था कि मैं पुत्र जन्म और पुत्री के जन्ममे कोई अन्तर नही देखता हूँ — मेरे लिये दोनो समान हैं - और इसलिए यदि पुत्रीका जन्म हुआ तब भी तुम इस बधाईको खुशी से गा सकती हो और गाना चाहिए । इसीसे इसपे पुत्र या सुत जैसे शब्दोका प्रयोग न करके 'शिशु' शब्दका प्रयोग किया गया है और उसे ही 'दें आशिश शिशु हो गुणधारी' जैसे वाक्यद्वारा आशीर्वाद दिये जानेका उल्लेख किया गया है । परन्तु रूढिवश पिताजी और वूआजी आदिके विरोधपर ब्राह्मणियोको तुम्हारे जन्मपर बधाई गाने की हिम्मत नही हुई, फिर भी तुम्हारी माताने अलग से ब्राह्मणियो को अपने पास बुलाकर बिना गाजे-बाजे - के ही बधाई गवाई थी और उन्हे गवाईके वे २) रु० भी दिये थे । साथ ही दूसरे सब नेग भी यथाशक्ति पूरे किये थे जो प्राय. पुत्र-जन्मके अवसरपर दूसरोको कुछ देने तथा उपहारमें आये हुए जोडे-झग्गो आदिपर रुपये रखने आदिके रूपमे किये जाते हैं ।
तुम्हारा नाम मैंने केवल अपनी रुचिसे ही नही रखखा था बल्कि श्रीआदिपुराण वर्णित नामकरण संस्कार के अनुसार १००८ शुभ नाम अलग-अलग कागज के टुकडोपर लिखकर और उनकी गोलियाँ बनाकर उन्हे प्रसूतिगृहमे डाला था और एक बच्चेसे एक गोली उठवाकर मँगाई गई थी । उस गोलीको खोलने पर 'सन्मतिकुमारी' नाम निकला था और यही तुम्हारा पूरा नाम था । यो आम बोल-चालमे तुम्हे 'सन्मती' कहकर ही पुकारा
जाता था ।