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युगवीर-निवधावली
जनोके हितकी अधिक चिन्ता रखती थी, जो गुणीजनोको देखकर प्रफुल्लित हो उठती थी और विद्यासे जिनको बड़ा प्रेम था और सत्कार्योंमे जिसका सदा सहयोग रहा है ।
जीवनके पिछले आठ दिनोमे मैंने उनके पास रहकर, उन्हे धर्मकी वाते सुनाकर और उनसे कुछ प्रश्न करके जो निकटसे उनकी स्थितिका अनुभव किया तो उससे मालूम हुआ कि वे अपने अन्तिम जीवनमे भी वीर बनी रही हैं, उन्होने अपने कष्टको स्वयं झेला, दूसरोपर अपना दुख व्यक्त नही किया ओर न मुखमुद्रा पर ही दुःखका कोई खास चिन्ह आने दिया, इस ख्यालसे कि कही दूसरोको कष्ट न पहुँचे ।' कूल्हने - कराहनेका नाम तक नही सुना गया, गुस्सा और झुंझलाहट, जो अक्सर कमजोरी के लक्षण होते हैं, पास नही फटकते थे, पूछने पर भी कि क्या तुम्हे कुछ वेदना है ? सिर हिला दिया- नही । ऐसा मालूम होता था कि आप कर्मोदयको समताभाव के साथ सहन करती हुई एक साध्वी के रूपमें पड़ी है । आपकी परिणति बहुत शुद्ध रही है | आशा, तृष्णा और मोहपर आपने वडी विजय प्राप्त की है, किसी चीज में भी मनका भटकाव नही रक्खा, किसी भी इष्ट पदार्थसे वियोगजन्य कष्टकी कोई रूपरेखा तक आपके चेहरे पर दिखाई नही पडती थी ।
'किसी को कुछ कहना या सन्देश देना है ? जब यह पूछा गया तो उत्तर मिला - 'नही' । इतनी निस्पृहताकी किसीको भी
१ - मेरे पहुॅचनेसे कुछ दिन पहले जब उनसे पूछा गया कि "क्या आप भाईजीको देखना चाहती हो, उन्हें बुलावें, तो उन्होने यही कहा कि देखनेको इच्छा तो है, परन्तु उन्हें आनेमें कष्ट होगा ! दूसरों के कष्टका कितना ध्यान ॥