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राजगृहमें वीरशासन महोत्सव
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भयकरता छोडकर बिदा लेनी शुरू कर दी और वे पर्वतारोहण के प्रोग्राम के समय एकदम छिन्न-भिन्न हो गये। यह अद्भुत दृश्य देखकर उपस्थित विद्वन्मण्डली और इतर जनता के हृदय में उत्साहकी भारी लहर दौड़ गई और वह द्विगुणित उत्साह के साथ गाजेबाजे समेत श्रीवीर-प्रभु और वीरशासनका जयजयकार करती हुई विपुलाचलकी ओर बढ़ चली । जलूसमे लोगोका हृदय आनन्दसे उछल रहा था और वे समवसरण में जाते समयके दृश्यका सा अनुभव कर रहे थे । विद्वानोके मुखसे जो स्तुति स्तोत्र उस समय निकल रहे थे वे उनके हृदय के अन्तः स्तलसे निकले हुए जान पडते थे और इसीसे चारो ओर आनन्द बखेर रहे थे । अनेक विद्वान् वीरशासनकी अहिंसादि विषयक रंग-विरंगी ध्वजाएँ तथा कपड़े पर अकित शिक्षाप्रद मोटोज अपने हाथोमे थामे हुए थे मेरे हाथमें वीरशासनका वह धवलध्वज ( झडा ) था जो अन्तको विपुलाचल स्थित वीरप्रभुके मन्दिरपर फहराया गया । पर्वत पर चढ़ते समय जरा भी श्रमबोध नही होता था - मानो कोई अपलिफ्ट ( Uplift ) अपने को ऊँचे खीचे जा रही हो ।
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विपुलाचलके ऊपर पहुँचते ही सबसे पहले वीरशासन के झडेका अभिवादन किया गया। झडाभिवादनकी रस्मको प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारसने, 'ऊंचा झंडा जिन शासनका परम अहिंसा दिग्दर्शनका' इस गायनके साथ अदा किया, जिसे जैनबालाविश्राम आराकी छात्राओने मधुर ध्वनि से गाया था ।
इसी समय पर्वतपर सूर्यका उदय हो रहा था और सूर्य उस समय ऐसा देदीप्यमान तथा अपूर्व तेजवान प्रतीत होता था, जैसाकि इससे पहले कभी देखनेमें नही आया, मानो वीरशासन का अभिनन्दन करनेके लिये उसका भी अग अग प्रफुल्लित हो रहा हो ।