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युगवीर - निवन्धावली
करना स्थिर किया था, जबकि पहले से उसकी इच्छा आजन्म ये सब बातें भी उक्त पत्र ( अने ०
अविवाहित रहने की थी । कि० २ ) से जानी जाती हैं ।
(
नं० ३) मे हेमचन्द्रने
सूचित किया था कि
२४ फरवरी सन् १६३० के पत्र लेख भेजने की सूचना देते हुए यह भी उसने वह लेख पिताजी ( प्रेमीजी ) और पं० दरबारीलालजी ( वर्तमान सत्यभक्त ) को भी दिखलाया है, प० दरवारीलालजी ने 'ठीक है' ऐसा रिमार्क दिया है और पिताजीने उसे 'निकम्मा' ठहराया है । पिताजी के उत्साह न दिखाने के कारण उत्साह ठंडा होनेसे पहले हो उसने उसको मेरे पास भेज देना उचित समझा । इस पत्र से यह भी मालूम होता है कि उन दिनो हेमपर फिर कुछ झिडकियां पडी हैं, जिनसे उसका स्वाभिमानी आत्मा तिलमिला उठा है ओर उसने अपनी तत्कालीन मनोदशाका उल्लेख करते हुए यह उत्कट इच्छा व्यक्त की है कि में उसे अपने पास देहली ( समन्तभद्राश्रममे ) बुला लूँ । इस विषयमे उसके निम्न शब्द खास तौरसे ध्यान देने योग्य है: -
"मुझमें जाननेकी इच्छा दिनपर दिन बहुत ही प्रबल होती जाती है और यहाँ कामके मारे मैं पिसा जाता हूँ । मुझे अपनी पिपासा शात करनेका बिल्कुल मौका नही मिलता । पिताजीकी झिडकियाँ खा-खाकर मेरी आत्मा बहुत तड़पती रहती है और दिन पर दिन बिगडता जाता हूँ । यदि आप मुझे वहाँ अपने पास बुला लें तो मुझे इससे बढ़कर खुशी और किसी बात मे न होगी । यदि मेरे लिये जिन्दगी भरके लिये खाने-पीने और Dilut रहनेका इन्तजाम हो जाय तो मैं दुकान भी छोड़ दूँगा । मैं एक