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कर्मठ विद्वान (ब्र० शीतलप्रसादजी) : ५:
ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी जैन-समाजके एक बड़े ही कर्मठ विद्वान् थे। जैन धर्म और जैन समाजके प्रति उन्हे गाढ प्रेम था, लगन थी और साथ ही उसके उत्थानकी चिन्ता थी, धुन थी। इसी धुनमे वे दिन-रात काम किया करते थे-लिखते थे, वार्तालाप करते थे, लम्बे-लम्बे सफर करते थे, उपदेश तथा व्याख्यान देते थे और अनेक प्रकारकी योजनाएं बनाते थे। उन्हे जरा भी चैन नहीं था और न वे अपना थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ ही जाने देते थे। जहां जाते वहाँ शास्त्र बाँचते, अपने पब्लिक व्याख्यानकी योजना कराते, अग्रेजी पढे-लिखोमें धर्मकी भावना फूंकते, उन्हे धर्मके मार्गपर लगाते, सभा-पाठशालादिकी स्थापना कराते और कोई स्थानीय सस्था होती तो उसकी जांच-पड़ताल करते थे। साथ ही परस्परके वैमनस्यको मिटाने
और जनतामे फैली हुई कुरीतियोको दूर करानेका भरसक प्रयत्न भी किया करते थे। प्रत्येक चौमासेमे अनुवादादि रूपसे कोई ग्रन्थ तैयार करके छपानेके लिये प्रस्तुत कर देना और उसके छपकर प्रचारमे आनेकी समुचित योजना कर देना तो उनके जीवनका एक साधारण-सा काम हो गया था। भले ही विद्वज्जन-हृद्य कलापूर्ण गभीर साहित्यके निर्माणमे उनका हाथ कम रहा हो, परन्तु साधारण जनताके लिये उपयोगी साहित्यके निर्माणका उनको अच्छा अभ्यास था।
उनमें एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे सहनशील थेविरोधो, कटु-आलोचनाओ, वाक्प्रहारो और उपसर्गो तकको