________________
युगवीर-निव चावली इसके सिवाय, आप विद्याव्यसनी तथा सुचार-प्रिय थे। कई भाषाएँ जानने थे, विद्वानोगे मिलकर प्रसन्न होते थे, नाना प्रकारको पुस्तकोको पढ़ने तथा सग्रह करनेका आपको शोक था, लेब भी आप कमी-कभो लिखा करते थे---जिमका कुछ रमास्वादन 'अनेकान्त'के पाठक भी कर चुके है-और कविता करने में भी आपकी रुचि थी। कुछ महीनोसे 'जीवन-मुघा' नाम का एक वैद्यक मासिक पत्र भी आपने अपने मोपधालयमे निकालना प्रारंभ किया था, जो अभी चल रहा है । जैनशास्त्रीका आपने बहुत-कुछ अध्ययन किया था और उनके आधारपर वर्पोमे आप 'अहंत्प्रवचनवस्तुकोश' नामका एक कोश तैयार कर रहे थे। वस्तुओके सग्रहकी दृष्टिसे आप उसे पूरा कर चुके थे, परन्तु फिर आपका विचार हुमा कि प्रत्येक वस्तुका कुछ स्वरूप भी साथमे होवे तो यह कोश अधिक उपयोगी बन जावे। इसमे आप पुन उसको व्याख्यासहित लिख रहे थे कि दुर्दैवसे आपकी वायी हथेलीमै एक फोडा निकल आया, जिसने क्रमश: भयकर रूप धारण किया, करीव साढे तीन महीने तक तरह-तरहके उपचार होते रहे, बडे-बडे डाक्टरो तथा सिविल सर्जनोंके हाथमे उनका केस रहा, परन्तु भावीके सामने किसीसे भी कुछ न हो सका । अन्तमे बेहोशीके ऑपरेशन द्वारा हाथको काटनेको नौवत आई और उसीमे एक सप्ताह वाद आपके प्राणपखेरू उड गये ।। इस दुख तथा शोकमे मैं आपके सुयोग्य पुत्र वैद्य ५० महावीरप्रसादजी और दूसरे कुटुम्बी जनोके प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति और समवेदना प्रकट करता हूँ और भावना करता हूँ कि वैद्यजीको परलोकमे सुखमे शान्तिकी प्राप्ति होवे।' १ कार्तिक . आश्विन वीर नि० सं० २४५६ ( नवम्बर १९३० )
अनेकान्त, वर्ष १, किरण ११, १२ ।