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युगवीर-निबन्धावली नोट किया है और अनेक स्थानोपर जैनप्रक्रियाको विभिन्न पाया है । साथ ही, आपको यह देखकर फष्ट हुआ है कि जैन ज्योतिप के कुछ ग्रन्योको अजैनोंने थोडासा परिवर्तन करके या नामादिक बदलकर अपना बना लिया है, जिसका कारण जैनियोका प्रमाद और उनमे ज्योतिष विद्याकी कमी तया तद्विपयक प्रयोके पठनपाठनका अभाव ही कहा जा सकता है। इस विषयके आपने कुछ नमूने भी प्रमाण-महित उपस्थित किये हैं, जिन्हें फिर किसी समय प्रकट किया जायगा।
कुछ अर्सेसे आपके हृदयमे यह स्याल पैदा हमा कि ज्योतिष विपयका जो विशेष अनुभव हमने प्राप्त किया है वह कही हमारे साथ ही अस्त न होजाय--उसका लाभ दूसरोको मिलना चाहिये। साथ ही, यह शुभ भावना भी जागृत हुई कि जैनज्योतिप-ग्रन्योका हिन्दीमे अनुवाद करके उन्हे समाजमे प्रचारित किया जाय, जिससे जैनियोमे ज्योतिषविद्याकी जानकारी बढे
और जनतापर उनके ग्रन्यरत्नोका अच्छा प्रभाव पड़े। फलत. देवेन्द्रसूरिके शिष्य हेमप्रभसूरि-विरचित 'प्रैलोक्य प्रकाश' नामका जो १३७० श्लोक-परिमाण है, जैन-ज्योतिप-गंथ आपको सवत् १६५६ के श्रावण मासमे श्री शान्तिविजयजी महाराजके पाससे, मन्दसौरमे उनके चातुर्मासके अवसरपर, उपलब्ध हुआ था और जिसकी तीन दिनमे ही आपने स्वय अपने हाथसे प्रतिलिपि की थी तथा ३६ वर्ष तक जिसका अवलोकन एव मनन होता रहा था, उसकी आपने श्रावण संवत् १९६८ मे भाषावचनिका वनानी शुरू कर दी और माघ वदि ३ संवत् १९६८ सोमवारके दिन उसे पूरा कर दिया। साहित्यसेवाके क्षेत्रमे यही आपकी पहली कृति है, जिसके अन्तमे आप लिखते हैं--"आज ६५