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युगवीर निवन्धावली इन विषबुझे वाग्वाणोसे जिनका हृदय व्यथित एव विचलित नही हुआ और जो वरावर अपने लक्ष्यकी और अग्रसर होते रहे वे स्त्री-पुरुष धन्य हैं, और यह सब उन्हीकी तपस्या, एकनिष्ठा एव कर्तव्य-परायणताका फल है जो पिछले जमानेमे भी धर्मका कुछ प्रकाश फैल सका और विश्वको जैनधर्म एव तत्त्वज्ञान-विषयक साहित्यका ठीक परिचय मिल सका। अन्यथा उस भट्टारकीय अन्धकारके प्रसारमे सव कुछ विलीन हो जाता' ।
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१. अनेकान्त वर्ष ८, कि० ६-७, दिसम्बर १९४६