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युगवीर-निवन्धावली निश्चय-व्यवहराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राऽऽद्यः साध्यरूपः स्याद द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।
-तत्त्वार्थसार यहाँ एकको साध्य और दूसरेको साधन बतलाना दोनो मार्गोकी परस्पर मित्रताका द्योतक है-दोनोकी सर्वथा एक दूसरेसे भिन्नता-शत्रुताका सूचक नही । निश्चय-नय व्यवहारके बिना पगु है-लँगडा है, एक कदम भी चल नहीं सकता, अपने अस्तित्वको भी व्यक्त नही कर सकता, उसके लिए उसे शब्दोका सहारा लेना पडता है, जो कि व्यवहारका ही एक प्रकार है। और व्यवहार-नय निश्चयके बिना दृष्टि-विहीन है-अधा है, उसे यथार्थ कुछ सूझ नही पडता और इसलिये वह लक्ष्य-भ्रष्ट बना रहता है। लगडा यदि अधेके साथ सहयोग करके उसके कन्धे पर चढता है और उसे चलनेमे सहायक दृष्टि प्रदान करता है तो दोनो उस गहन-वनसे बाहर निकल आते हैं जहाँ दावानल खेल रहा हो। और इस तरह दोनो एक-दूसरेके प्राण-रक्षक बन सकते हैं।
जो एकान्त निश्चय (द्रव्यार्थिक ) नयके पक्षपाती है, उसीको वस्तु ( भूतार्थ ) समझते हैं और प्रतिपक्ष ( व्यवहार ) को अवस्तु ( अभूतार्थ ) बतलाते हुए उससे द्वेष रखते हैं, वे जैनागमकी दृष्टि मे मिथ्यादृष्टि ( एकान्ती ) हैं। इसी तरह जो एकान्त व्यवहार ( पर्यायार्थिक ) नयके पक्षपाती हैं, स्वपक्षप्रतिवद्ध हैं, उसीको वस्तु ( भूतार्थ ) मानते हैं और प्रतिपक्ष ( निश्चय ) को अवस्तु ( अभूतार्थ) प्रतिपादन करते हुए उससे द्वेष रखते हैं, वे भी जैनागमकी दृष्टिमे मिथ्यादृष्टि ( एकान्तो) है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने निरपेक्षनयोको मिथ्या और