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समाजका वातावरण दूषित
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सापेक्ष नयोको सम्यक् ( वस्तुभूत ) बतलाया है ' । ऐसी स्थिति मे किसी भी एक नयके पक्षपात ( एकान्त ) को छोडकर जैनागमके अनुसार हमे सदा सापेक्षदृष्टिसे उभयनय के विपयको अपनाते हुए सम्यग्दृष्टि अनेकान्ती बनाना चाहिये | ऐसा होने पर तात्त्विक विरोधके लिये कोई स्थान नही रहेगा और समाजका जो वातावरण अनेकान्तकी अवहेलनाके कारण दूषित हो रहा है वह सुधर जायेगा ।
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अन्त में इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ कि कानजी स्वामीसे, किसी-किसी विपयमे मतभेद रखते हुए भी, मेरा उनके प्रति कोई द्वेषभाव नही हैं- मैं उनके व्यक्तित्वको आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ । और इसलिये मेरा उनसे सादर निवेदन है कि वे अहकारका परित्याग कर अव भी अपनी भूल स्वीकार करनेकी उदारता दिखलाएँ और पुण्यको विष्ठा बतलाने रूप जो गर्हित वचन किसी समय उनके मुँहसे निकल गया है। उसे वापिस लेनेकी कृपा करें । इसमे उनका गौरव है, सीजन्य है और समाजका हित सन्निहित। साथ ही समाजके विपक्षी विद्वानो तथा अन्य सज्जनोसे भी मेरा नम्र निवेदन है कि यदि कानजी स्वामी अपनी भूल स्वीकार नही करते, मिथ्या आग्रह १ (क) दव्यट्टिय चत्तव्वं भवत्थु नियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दव्वट्ठियणयस्स ॥ १० ॥ तम्हा सव्वे चिया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिवद्धा । अण्णोष्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसभावा ॥ २१ ॥ - सन्मतिसूत्रे सिद्ध सेनः
(ख) निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् । नही छोड़ते और न उक्त गर्हित वचनको वापिस हो लेते हैं तो स्वयम्भू-स्तोत्र