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युगवीर-निवन्धावली बतलाया है, ऐसे हितकारी पुण्यको भी कानजीस्वामी का विष्ठा अथवा विष्ठाके समान बतलाना बहुत ही अखरनेवाली बात है, नासमझीका परिणाम हे और सातिशय-पुण्यके फलको भोगनेवाले अरहन्तो तकका एक प्रकारसे अपमान है। यदि कानजीस्वामी उसी समय अपनी भूलको सुधार लेते तो समाज का वातावरण अशान्त होनेसे बच जाता और उनके स्वयके गौरवकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती, परन्तु उन्होंने व्यर्थकी हठ पकडी; जो मुंहसे निकल गया उसे पुष्ट करने लगे, इससे समाजका वातावरण उत्तरोत्तर विगडता चला गया पक्षापक्षी तथा पार्टीवन्दियाँ शुरू हो गई और उनसे कपायोको प्रवल होनेका अवसर मिला है।
सोचने तथा समझनेकी बात है कि जिस पुण्यको कानजी स्वामी विष्ठा वतलाते हैं उस पुण्यका स्वय उपभोग कर रहे हैं-उसे त्यागकर जगलोमे निर्भय निराहार निर्वस्त्र और कष्ट-सहिष्णु होकर रहनेके लिये तैयार नही। यदि वे वस्तुत पुण्यको विष्ठा समझकर छोड देवें पुण्य-प्रभव सारी सुखसुविधाओका परित्याग कर देवे अथवा पुण्य रुष्ट होकर उनके पाससे चला जावे तव उनकी कैसी कुछ गति-स्थिति बनेगी इसे सहज ही समझा जा सकता है। उन्हे तब एक दीन-दुखी दरिद्रीका जीवन व्यतीत करनेके लिए बाध्य होना पड़ेगा और उनकी वर्तमान सव शुभ-प्रवृत्तियाँ प्राय समाप्त हो जाएंगी। ____ यदि कोई मनुष्य यह चाहता है कि मेरे शरीरमे सदा सुखसाता बनी रहे, रोगादिकका कोई उपद्रव न होने पावे, सब अगउपाग ठीक तथा कार्यक्षम रहा करे, खाने-पोनेको रुचिकर भोजन तथा दुग्धादि पुष्टिकर पदार्थ यथेष्ट मात्रामे मिलें, पहनने के लिए अच्छे साफ-सुथरे वस्त्र तथा रहनेके लिए सुन्दर अनुकूल निवासस्थानकी प्राप्ति होवे और यात्रादिके लिए मोटरकी सुव्यवस्था