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भट्टारकीय मनोवृत्तिका नमूना
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( जैनमन्दिर ) को इस तरह चली जाती हैं जिस तरह कि राजाके घर वारागना ( रण्डी ) जाती है ||
हाल इस भट्टारकीय मनोवृत्तिके परिचायक तीन पद्य मुझे एक गुटके परसे उपलब्ध हुए हैं, जो गत भादो मासमे श्री वैद्य कन्हैयालाल जी कानपुरके पाससे मुझे देखनेको मिला ' था और जिसे सिवनीका बतलाया गया है । यह गुटका २०० वर्ष से ऊपरका लिखा हुआ है । इसमें संस्कृत - प्राकृत आदि भाषाओके अनेक वैद्यक, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र और जत्र-मंत्रतत्रादि-विषयक ग्रन्थ तथा पाठ हैं । अस्तु, उक्त तीनो पद्य नीचे दिये जाते हैं, जो सस्कृत - हिन्दी - मिश्रित खिचडी भाषामे लिखे गये हैं और बहुत कुछ अशुद्ध पाये जाते हैं । इनके ऊपर "हृदे ( दय ) वोध ग्रन्थ कथनीय ।" लिखा है । सभव है 'हृदय बोध' नामका कोई और ग्रथ हो, जिसे वास्तवमे 'हृदयवेध' कहना चाहिये और वह ऐसे ही दूपित मनोवृत्तिवाले पद्योसे भरा हो और ये पद्य ( जिनमे ब्रैकिटका पाठ अपना है ) उसीके अश हो
" सूत उत्पत्यं (सुतोत्पत्तौ ) जगत्सर्वं हर्पमानं प्रजायते: (ते) तेरापंथी ara (afa) पुत्रं (त्रे) रौरव देवतागणाः ॥ १ ॥ त्रिदश १३ पंथरतौ (ता) निशिवासराः । गुरुविवेक ส जानति निष्ठुरा. जप-तपे कुरुते वहु निष्फला ( ला ) किमपि ये व ( ? ) जनासम काठ्या ॥ २ ॥ पुर्प (रुप) रीत लबै निजकामिनी । प्रतिदिनं चलिजात जी (जि) नालये । गुरुमुखं नहि धर्मकथा नृपगृहे जिम जाति
श्रुणं वरांगना ॥ ३ ॥