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एक ही अमोघ उपाय
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जानेवाले पडितोके सिरपर आ पडती हे जो न्यायतीर्थ, न्यायाचार्य न्यायालकार, सिद्धातशास्त्री, जैनदर्शनदिवाकर ओर वादीभकेसरी जैसी ऊंची-ऊंची पदवियाँ-उपाधियाँ धारण किये हुए हैं। ग्वेद है कि उन्होने अपने उत्तरदायित्वको नही समझा और इसीमे मामला इतना तूल पकड गया । अन्यथा, उसके इस हद तक पहुँचनेकी नौवत ही न आती।
ऐसी कोई बात नही कि इन पडितोको युक्तिपुरस्सर लिखना न आता हो, न आ सकता हो या वैसा लिखनेके योग्य ये परिश्रम न कर सकते हो। जरूर आता है, आ सकता है और ये परिश्रम भी खूव कर सकते हैं। इसी तरह यह भी नहीं कि पडित दरवारीलालजीके लेखोमे त्रुटियाँ न हो या वे आपत्तिके योग्य ही न हो। उनमें त्रुटियाँ जत्र है और वे बहुत कुछ आपत्निके योग्य भी हैं। फिर भी इन पडितोकी प्रवृत्ति उनका उत्तर देनेमे नहीं होती। ये लोग डरते हैं, घबराते हैं और मैदानमे आना नही चाहते ।।
सच पूछा जाय तो इसमे इन पडितोका भी एक प्रकारसे दोप नही है, बल्कि उस बीमारीका दोप है जो बुरी तरहसे इनके पीछे लगी हुई है, और कुछ समाजका भी दोप है, जो ऐसे वोमारोसे काम लेनेका तरीका नही जानता अथवा काम लेना नहीं चाहता। यह उस बीमारीका ही परिणाम है जो भयके उपस्थित होनेपर ये लोग स्वय ऑखें मीचते हैं और दूसरोको ऑखें वन्द करनेके लिए कहते है-अर्थात् सुसाकी अंधियारी करने-करानेका उपदेश देते हैं और समझते हैं कि इस तरह अपनी तथा दूसरोकी रक्षा हो जायगी। "जैनजगत् ( अथवा सत्यसदेश ) को पढना ही नही चाहिये, जैनजगत्के लेखोका उत्तर न देना ही उसका उत्तर है' इत्यादि उपदेश इसी आँख