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युगवीर-निवन्धावली वे अपनी दैसी कर्तृतसे उस लेखादिको असम्बद्ध, वेढगा तथा वेमानी तक कर डालते हैं। शायद ऐसे लोगोको लक्ष्य करके ही कहा गया है कि-'प्रसादोऽपि भयकर ।"
सम्पादकोके इन दोपोके कारण ही अक्सर सुलेखकोको उनके पत्रोमे लेख देनेकी हिम्मत नहीं होती अथवा अपने लेखोके प्रकाशनार्थ उपयुक्त क्षेत्र न देखकर लेख लिखनेमे ही उनकी प्रवृत्ति नही होती और इस तरह समाज सुयोग्य लेखकोके लेखोका लाभ उठानेसे वचित ही रह जाता है, यह बडे ही खेदका विषय है । अत सम्पादको तथा लेखकोके इन दोपोको सुधारनेकी बडी जरूरत है और इसका मुख्य उपाय है 'समालोचना' । समालोचनाके अभावमे उनकी निरकुशता बढ जाती है। वे अपनी लेखनी अथवा सम्पादकीको निर्दोष समझने लगते हैं और फिर उनका सुधार होना मुश्किल ही नही, किन्तु असभव-जैसा हो जाता है । साथ ही सदोप साहित्यके प्रचारसे समाजके उत्थान एव विकासमे बाधा भी पड़ती है-अगली सन्तति भी उन्ही दोषोका अनुसरण करने लगती है। इसलिये विद्वानोको सद्भावनाके साथ समालोचनाको जरूर अपनाना चाहिये । समय और शक्तिके होते हुए इस विषयमे व्यर्थकी उपेक्षा न करनी चाहिये । अस्तु ।
इन्ही सब बातोको लेकर आज मैं उक्त 'पैसा' नामको कविताको अपनी आलोचनाका विपय बनाते हुए उसकी मोटीमोटी त्रुटियोका सामान्य रूपसे दिग्दर्शन कराता हूँ। कविताके पद्य और उनकी आलोचना इस प्रकार हैकितना अहो आज ले आदर, आया जगमे पैसा! कैसा अतुल अनूठा जादू, भरकर लाया पैसा !! पैसा है तो मानव मानव, नही वना-चलाया रासभ । भरी स्वर्णमे जो मादकता, क्या भर सकता आसव ॥१॥