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युगवीर-निवन्धावली केवल एक व्यक्ति (प० दरबारीलालजी) को ही यथार्थ मार्ग दर्शा देनेसे काम चल सकता है, बादको-इस मौनके और कुछ समय कायम रहनेपर फिर हजारोको समझाना-मार्गमे पुन स्थिर करना-बहुत कठिन हो जायगा। परन्तु वर्णिद्वयकी यह भारी पुकार भी समाजके बहरे कानोपर पड़ी और उत्तरमे कहीसे भी कोई आहट सुनाई नही पडी। जिन धुरन्धर विद्वानोसे उत्तरकी आशा रक्खी गई थी, उनके कानो पर जूं तक भी नहीं रेंगी ।। इससे उक्त दोनो ब्रह्मचारी हताश होकर बैठ गये ।
परन्तु जान पडता है ब्र० शीतलप्रसादजी अभी बिल्कुल हताश नही हुए हैं । इसीसे कुछ अर्सेके लम्बे मौनके बाद उन्होने हालमे "जैनसिद्धान्तकी रक्षा" नामकी एक और पुकार अपने ऑफिशियेटिंग सम्पादककी ओर से २६ अक्टूबर सन् १९३६ के जैनमित्रमे प्रकाशित कराई है और उसमे अमुक अमुक जैनाचार्योके वचनरूप आगम वाक्योका जो कोई खण्डन करे उसका समाधान करना जैन विद्वानोका परम कर्तव्य है इत्यादि बतलाते हुए, प० दरबारीलालजीकी "जैनधर्म-मीमासा'' नामक उस पुस्तककी प्रति-मीमासा करनेकी भी जरूरत जाहिर की है, जो कि जैनजगत्मे प्रगट होने वाली “जैनधर्मका मर्म' नामकी लेखमालाका ही एक सग्रह एव अश है। साथ ही यह प्रकट करते हुए कि ऐसी पुस्तकका उत्तर देनेके लिये विद्वानोकी एक कमेटी होनी चाहिये, प्रधानत शास्त्रार्थसघ अम्बाला छावनीको यह प्रेरणा की है कि वह इस कामको अपने ऊपर लेवे और उक्त पुस्तकका उत्तर तैयार करके माननीय पाँच विद्वानोके द्वारा सशोधित कराकर उनके हस्ताक्षरसे प्रकट करावे, और इस तरह अपने सघकी उपयोगिताको घोषित करे। यदि वह इस कामको