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युगवीर निबन्धावली
समावेश है, वे जयके उपासक हैं और जय ही उनका लक्ष्य है ।
इसीसे वे अपनी नित्य क्रियाओ - भक्तिपाठोमें कहते हैं । जिय-भय-जिय-उवसग्गे जिय-इदिय-परिस हे जिय-कसाए । जिय-राय-दोस मोहे जिय सुह- दुक्खे णमसामि ।। अर्थात् — जिन्होने भयोको जीत लिया, उपसर्गोको जीत लिया, इन्द्रियोको जीत लिया, परीषहोको जीत लिया, कषायोको जीत लिया, राग-द्वेषको जीत लिया, मोहको जीत लिया और सुख-दुखको जीत लिया उन योगि-प्रवरोको नमस्कार है ।
इसके सिवाय, जिस पूज्य देवताके नामपर उनका "जैन" ऐसा नाम सस्कार हुआ है वह भी "जिन" है, और 'जिन' कहते हैं जीतनेवाले ( विजेता ) अथवा जयशीलको -- जो कर्मशत्रुओको निर्मूल करके पूर्णरूपसे अपना आध्यात्मिक विकास करता है वही 'जिन' कहलाता है । जिनके उपासक होने अथवा जिन - पदको प्राप्त करना सबोको इष्ट होनेसे जैनियो का भी लक्ष्य वही जय - आध्यात्मिक विजय - पाना है अथवा उसी जयके उन्हे उपासक कहना चाहिये जो भौतिक विषयसे बहुत ऊँचे दर्जेपर है और जिसके आगे भौतिक विजय हाथ बाँधे खडी रहती है । और इसलिये जय-पूर्वक जिनेन्द्र शब्दका व्यवहार करना जैनियोके लिये बहुत ही अनुकूल जान पडता है । परन्तु खेद है कि आज जैनियोने अपनी इस प्रकृतिको भुला दिया, वे अपने स्वरूपको भुलाकर सिंहसे गीदड वन गये, उन्हे अपने लक्ष्यका ध्यान नही रहा और इसीसे वे विजेता न रह कर विजित पराजित और गुलाम बने हुए हैं । वे इन्द्रिय-विषयोके गुलाम हैं कषायोंके गुलाम हैं, परिस्थितियोके गुलाम हैं, रूढियोके गुलाम हैं, अथवा अज्ञानके वशवर्ती होकर बाह्य पदार्थोंके गुलाम हैं । उनमे कोई
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