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युगवीर निवन्धावली प्रभावक और मूलकी अर्थ-गहराई अथवा उसकी नयविवक्षाको प्रकट करनेवाला होना चाहिये-मात्र शब्दानुवादसे काम नहीं चलेगा।
(३) तुलनात्मक अध्ययनको लिये हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियोसे ग्रन्थ सर्वत्र विभूपित किया जाना चाहिये ।
(४) छपाई अच्छे व्यवस्थित ढगको लिये हुए बहुत ही शुद्ध तथा साफ होनी चाहिये, जिसके लिये यथायोग्य सुन्दर टाइपोकी योजनाके साथ प्रेस-कापी और प्रूफ-रीडिंगमे अत्यन्त सावगनी रखनेकी जरूरत है। साथ ही कागज अच्छा पुष्ट, सुदृढ एव स्थायी होना चाहिये।
प्रकाशनकार्यको हाथमे लेनेसे पहले इन सब बातोपर ठीक तौरसे ध्यान दिया गया मालूम नही होता-मूलादि प्रतियोपरसे मुकावलेकी तो कोई बात भी योजनापत्रमे नही कही गई । इसीते प्रोफेसर साहबने इतिहास आदिका जो भी नमूना प्रस्तुत किया है वह बहुत कुछ त्रुटिपूर्ण जान पडता है-कही-कही मूलपाठ तक छूट गया है, सशोधनमे कमी रह गई है, गलत सशोधन भी हुआ है, छापेकी भी अशुद्धियाँ पाई जाती हैं, छपाईका ढग भी स्खलित है, टिप्पणियाँ बहुत साधारण हैं, अनुवाद जैसा चाहिये वैसा निर्दोष एव प्रभावक नहीं है, और ग्रथरचनाका इतिहास तो सम्पादकजीकी अध्ययनादि-विषयक बहुत बडी असावधानीको व्यक्त करता है। उदाहरणके तौरपर यहाँ इन सब त्रुटियोका पाठकोको थोडा-थोडासा परिचय कराया जाता है -
(क) जयधवला टीकाकी रचनाका इतिहास देते हुए, प्रोफेसर साहबने महावीर स्वामीके निर्वाणके पश्चात् एकसौ वर्षमे पाँच श्रुतकेवलियोका होना बतलाया है, अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् १७३. वर्षमे ग्यारह अंग-दशपूर्वके पाठी ग्यारह