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प्रवचनसारका नया सस्करण
५९५ उद्धृत की है। और इस तरह इन गाथाओके निर्णयसे कुन्दकुन्दादि कुछ आचार्योंके समयनिर्णयपर कितना ही प्रकाश पड सकता है। हाँ, जयसेनकी टीकामे प्रवचनसारकी एक गाथा निम्न प्रकारसे पाई जाती है -
तं देवदेवदेवं जदिवरचसह गुरूं तिलोयस्स । पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ।।
यदि यह गाथा वस्तुत इसी रूपमे कुन्दकुन्दकी है तो इसमें एक तरहसे यतिवृषभको भी नमस्कार पाया जाता है, जिससे कुन्दकुन्दका यतिवृपभसे पीछे होनेका और भी ज्यादा समर्थन होता है । परन्तु साथ ही यह भी बतला देना होगा कि कुन्दकुन्दके दूसरे किसी भी उपलब्ध ग्रथमे यतिवृपभका इस प्रकारका कोई स्मरण नहीं मिलता, बल्कि प्रवचनसारके तृतीय अध्याय और दर्शनपाहुड के मगलाचरणमे 'जदिवरवसह'की जगह 'जिणवरवसह' पाठकी उपलब्धि होती है। आश्चर्य नही जो उक्त गाथाका 'जदिवरवसहं' पद भी 'जिणवरवसह' ही हो-उसमे 'जिण' के स्थानपर 'जदि' गलत लिखा गया हो। और तब उससे यतिवृषभ का कोई आशय नही निकाला जा सकता। आशा है प्रो० साहव भविष्यमे, 'तिलोयपण्णत्ती' का सम्पादन समाप्त करते हुए अथवा उससे पहले ही, प्रकृत विपय पर गहरा प्रकाश डालनेका यत्न करेंगे।
अन्तमे में यह भी बतला देना चाहता हूँ कि इतने बडे ग्रन्थमे एक भी पेजका शुद्धिपत्र लगा हुआ नही है, जो इस बातको सूचित करता है कि ग्रथका सशोधन और प्रूफरीडिंग बहुत सावधानीके साथ किया गया है और यह बात है भी ठीक, फिर भी दृष्टि-दोपसे कही-कही कोई अशुद्धि जरूर रह गई हैजैसे कि प्रस्तावना पृष्ठ १०८ की ३१ वी पक्तिमे 'प्रभाचन्द्र'