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युगवीर-निवन्धावली वहुत-सी बातें इस ढगसे बढा दी गई जिससे पढने वालोको वे मूलग्रन्थकी ही बातें मालूम पड़ें और कही-कही अर्थका विल्कुल ही अनर्थ किया गया है। ऐसे बहुतसे अनुवादोके साथ मूल भी नहीं दिया गया और इससे उनकी गलतीका कोई पता न चलने और उसके रूढ हो जानेकी बहुत कुछ सभावना रहती है। कितने ही महान् ग्रथोके अनुवाद ऐसे श्रीहीन भी देखे गये जो ग्रथ-गौरवके अनुकूल नहीं, जिनसे मूल गथका भाव अच्छी तरह परिस्फुट नही होता, बल्कि कहीं-कही तो वे मूल ग्रथके महत्वको भी कम करते हुए जान पड़ते हैं। यह सब देखकर चित्तपर वडी चोट लगती है। नि सन्देह, यह 'एक वडी ही चिन्ताका' विषय है और इससे भविष्यमे बहुत कुछ हानि पहुँचनेकी सभावना है। मेरी इच्छा कई बार ऐसे अनुवादोपर कुछ लिखने अथवा प्रकाश डालनेकी हुई, परन्तु समयाभावने मुझे वैसा नहीं करने दिया। हाल में एक ऐसा ही ताजा अनुवाद मेरे हाथ पडा है, उसमें ऐतिहासिक विपर्यासको देखकर मुझसे नही रहा गया और इसलिये, समय न होते हुए भी, आज मै उदाहरणके तौरपर उसीका कुछ थोडासा परिचय अपने पाठकोको देनेके लिये प्रस्तुत हुआ हूँ और वह इस प्रकार है :
'दिगम्बर जैन' के अठारहवें वर्षके उपहारमे 'श्रावकाचार द्वितीय भाग' नामसे एक ग्रथ वितरित हुआ है, जिसके अनुवादक है प० नन्दलालजी चावली निवासी । मूलग्रथ गुणभूपण आचार्यका बनाया हुआ है जो कि विक्रमकी प्राय. १४ वी शताब्दीके विद्वान् थे, और उसका नाम है 'भव्यचित्तवल्लभ' अथवा 'भव्यजनचित्तवल्लभश्रावकाचार' । अनुवादके साथमें मूलनथके पद्योको क्रमश उद्धृत नही किया गया। हां, पीछेसे सारा ही मूलग्रथ इस द्वितीय