________________
६१०
युगवीर निवन्यावली आद्य शिप्य मोहरूपी पर्वतको नाश करनेके लिये वज्र समान त्रिलोकमे प्रसिद्ध कीतिवान् और विद्वानोसे मान्य श्री गुणभूपण स्वामी उत्पन्न हुए जो स्यावाद वाणीको जाननेके लिये चूडामणि रनके समान देदीप्यमान थे।"
विज्ञ पाठकजन । देता, कैसा और कितना विचित्र अनुवाद हैं। मालूम नही होता 'महान् पुरुपोसे मान्य, परम तेजस्वी, समस्त विद्याके पारगामी, आद्य और विद्वानोसे मान्य' यह सव कोनमें विशेषणपदोका अनुवाद किया गया है। मूलमें तो इन अर्थोके द्योतक कोई भी विशेषणपद नहीं है और 'स्यावाद वाणीको जाननेके लिये चूडामणि रत्नके समान दैदीप्यमान थे' यह 'ल्याद्वादचूडामणि' पदका जो अनुवाद किया गया है वह वडा ही विलक्षण जान पडता है। इसमे 'वाणीको जाननेके लिये दैदीप्यमान होने' ने तो सारे अनुवादको ही दैदीप्यमान कर दिया है ।। परन्तु इन सब बातोको भी रहने दीजिये, इस अनुवादके द्वारा वे गुणभूपण आचार्य जो सागरचन्दके शिष्यके भी शिष्य नही, किन्तु प्रशिष्य थे, मागरचन्दके ही शिष्य बना दिये गए हैं
और शिष्य भी कैसे ? आद्य शिष्य ।। इसके सिवाय, गुणभूपणके साक्षात् गुरु 'लोक्य कीति' तथा दादा गुरु ‘विनयचन्द्र' दोनो का नामतक भी उड़ा दिया गया। उनके विशेषणोकी तो फिर बात ही क्या ? यह सव सत्यका कितना व्याघात और ऐतिहासिक तथ्यका कितना विपर्यास है ।। इसे विज्ञ पाठक स्वय समझ सकते हैं। मूल पद्य बहुत ही सुगम है, उसमे एक जगह 'श्री सागरेन्दो सुत' और दो जगह 'तच्छिष्य ' 'तच्छिष्य,' पद आए है और उनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रथकान उसमे अपनेसे पहलेकी तीन पीढियोका उल्लेख किया है, परन्तु फिर भी अनुवादकजीने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया। जान