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युगवीर-निवन्धावली परीक्षाओ और समालोचनाओसे क्यो इतना घबराते हैं और क्यो उनका दर्वाजा बन्द करनेकी फिकरमे है। क्या आप जिनसेन-त्रिवर्णाचारके कर्ता जैसे आचार्योंको 'परमपूज्य' आचार्य समझते हैं और ऐसे ही आचार्योकी मानरक्षाके लिए आपका यह सब प्रयत्न है ? यदि ऐसा है तो हमे कहना होगा कि आप बड़ी भारी भूलमे हैं। अब वह जमाना नही रहा और न लोग इतने मूर्ख है जो ऐसे जाली ग्रन्थोको भी माननेके लिए तैयार हो जाय । सहृदय-विद्वत्समाजमे अब ऐसे ग्रन्थलेखक कोई आदर नही पा सकते और न स्वामी समन्तभद्र-जैसे महाप्रतिभाशाली और अपूर्व मौलिक ग्रन्थोके निर्माणकर्ता आचार्योका आदर तथा गौरव कभी कम हो सकता है। इसलिये समालोचनाओसे घबरानेकी जरूरत नही। जरूरत है समालोचनामे कही हुई किसी अन्यथा बातको प्रेमके साथ समझानेकी, जिससे उसका स्पष्टीकरण हो सके। समालोचनाओसे दोषोका सशोधन और भ्रमोका पृथक्करण हुआ करता है और उससे यथार्थ वस्तुस्थितिको समझकर श्रद्धानके निर्मल बनानेमे भी बहुत बडी सहायता मिला करती है। इसलिए सत्यके उपासको-द्वारा सद्भावसे लिखी गई समालोचनाएँ सदा ही अभिनन्दनीय होती हैं। जो लोग ऐसी समालोचनाओसे घबराते हैं उनकी जैनधर्मविषयक-श्रद्धा, मेरी रायमें, बहुत ही कमजोर है और उनकी दशा उस मनुष्य-जैसी है जिसे अपने हाथमे प्राप्त हुए सुवर्णपर उसके शुद्ध सुवर्ण होनेका विश्वास नहीं होता और इसलिये वह उसे तपाने आदिकी परीक्षामे देते हुए घबराता है और यही कहता है कि तपानेकी क्या जरूरत है, तपानेसे सोनेका अपमान होता है ? और उसको आगमे डालनेवाला सोनेका प्रेमी कसे कहला सकता है ? जो लोग शुद्ध सुवर्णके परीक्षक नही होते