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युगवीर-निवन्धावली के स्थान पर 'वालचन्द्र' नाम गलत छपा है, भापा टीका पृष्ठ २३७ पर 'बन्ध न होता' की जगह 'बन्च होता,' पृष्ठ २७६ पर 'ममतारप परिणामोने तथा आरभसे रहित' की जगह ममतारूप परिणामोके आरभते रहित,' पृष्ठ २८६ पर 'विहरतु' का अर्थ 'विहारकरे' की जगह 'व्यवहार कर्म करे', और पृष्ठ २६३ पर ( वधकर') 'हिंसा करनेवाला' के स्थान पर ( बन्धक )' बन्धका करनेवाला अशुद्ध छपा है । यद्यपि ये तथा इसी प्रकारकी दूसरी अशुद्धियाँ भी बहुत कुछ साधारण-सी । हैं और ग्रन्यके आगे-पीछेके सम्बन्धसे उनका पता चल जाता है, फिर भी कोई छोटी छोटी अणुद्धि भी ऐसी होती है जो अपने पाठकको वहुत चक्करमे डाल देती है। ऐसी अशुद्धिका एक नमूना प्रस्तावना पृष्ठ ५४ के तृतीय फुटनोटमे 'समयसार' के पृष्ठ १६५ का उल्लेख है, जिसने मुझे बहुत परेशान किया है, क्योकि उक्त पृष्ठ पर अमृतचन्द्रकी टीकामे 'सप्तपदार्थ' शब्दोका कोई भी उल्लेख देखनेमे नहीं आता, जिसके कारण मुझे इधरउधरकी कितनी ही टटोल करनी पड़ी है। जान पडता है जयसेनको टीकाके उल्लेखको गलतीसे अमृतचन्द्रका समझ लिया गया है। अच्छा होता यदि आधे पेजका ही एक शुद्धिपत्र ग्रन्थके साथ लगा दिया जाता।
इन सब आलोचनाओके साथ मैं ग्रन्थके इस सस्करणकी उपयोगिता एव सग्रहणीयताको फिरसे घोषित करता हुआ प्रो० साहवको उनके इस सफल परिश्रमके लिये हार्दिक बधाई तथा धन्यवाद भेंट करता हूँ ?'
१. जैनसिद्धान्त-भास्कर. जून १९३७