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युगवीर- निवन्धावली
लोग ही बतलाया करते हैं । कभी-कभी उन भूलो ओर त्रुटियोका
अनुभव ऐसे लोगोको हो जाया करता है जो ज्ञानादिकमे अपने वराबर नही होते और बहुत कम दर्जा रखते हैं । और यह सव आत्मशक्तियोके विकासका माहात्म्य है— किसीमे कोई शक्ति किसी रूपसे विकसित होती है और किसीमे कोई किसी रूपसे । ऐसा कोई भी नियम नही हो मकता कि पूर्वजनोके सभी कृत्य अच्छे हो, उनमें कोई त्रुटि न पाई जाती हो और गुरुओसे कोई दोप ही न बनता हो । पूर्वजनोके कृत्य बुरे भी होते हैं और गुरुओ तथा आचार्यांसे भी दोष बना करते हैं, अथवा त्रुटियाँ ओर भूलें हुआ करती हैं। यही वजह है कि शास्त्रोमं अनेक पूर्वजोके कृत्योकी निन्दा की गई है और आचार्यो तक के लिए भी प्रायश्चित्तका विधान पाया जाता है । इसलिए चाहे कोई गुरु हो या शिष्य, पूज्य हो या पूजक और प्राचीन हो या अर्वाचीन, सभी अपने-अपने कृत्यो द्वारा आलोचनाके विषय हैं और सभीके गुण-दोषोपर विचार करनेका जनताको अधिकार है । नीतिकारोंने भी साफ लिखा है
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"शत्रोरपि गुणा वाच्या दोपा वाच्या गुरोरपि ।
अर्थात् — शत्रुके भी गुण और गुरुके भी दोष कहनेकेआलोचना किये जाने के योग्य होते हैं । अत जो लोग अपना हित चाहते हैं, अन्धश्रद्धा के कूपमे गिरनेसे बचनेके इच्छुक हैं और जिन्होने परीक्षा - प्रधानताके महत्वको समझा है उन्हें खूब जाँच-पडतालसे काम लेना चाहिए, किसी भी विषयके त्याग अथवा ग्रहण से पहले उसकी अच्छी तरहसे आलोचना- प्रत्यालोचना कर लेनी चाहिए और केवल 'वावावाक्य प्रमाण' के आधारपर न रहना चाहिए । यही उन्नतिमूलक शिक्षा हमे जगह- जगहपर जैन शास्त्रोमे दी गई है और ऐसे सारगर्भित