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युगवीर-निवन्धावली
करते हुए प्रोफेसर साहबके सामने 'परिकर्म'-विषयक उल्लेख नही आए, और इसीसे उन्हे उनपर विचार करनेका अवसर नही मिल सका। आशा है वे भविष्यमे गहरी जाँचके बाद उनपर जरूर प्रकाश डालनेका यत्न करेंगे।
कुन्दकुन्दके नामसे प्रसिद्ध होनेवाले 'रयणसार' ग्रथका विचार करते हुए, २६ पृष्ठ पर जो यह प्रकट किया गया है वह ठीक ही है कि 'रयणसार' ग्रथ गाथा-विभेद, विचारपुनरावृत्ति, अपभ्रशपद्योकी उपलब्धि गण-गच्छादि उल्लेख और वेतरतीवी आदिको लिए हुए जिस स्थितिमे अपनेको उपलब्ध है उस परसे वह पूरा ग्रथ कुन्दकुन्दका नहीं कहा जा सकता, कुछ अतिरिक्त गाथाओकी मिलावटने उसके मूलमे गडबड उपस्थित कर दी है और इसलिये जब तक कुछ दूसरे प्रमाण उपलब्ध न हो जाये तब तक यह वात विचाराधीन ही रहेगी कि कुन्दकुन्द इस रयणसार ग्रथके कर्ता हैं।
पृष्ठ ४२ पर यह सुझाया गया है कि 'नियमसार' मे द्वादशश्रुतस्कध-रूपसे जो परिच्छेदभेद पाया जाता है वह मूलकृत नही है-मूल परसे उसकी कोई उपलब्धि नही होती, उससे मूलके समझनेमे किसी तरहकी सुगमता भी नही होती और न यही मालूम होता है कि ग्रथकार कुन्दकुन्दका अभिप्राय अपने ग्रथमे ऐसे कोई विभाग रखनेका था और इसलिये उक्त विभागोकी सारी जिम्मेदारी टीकाकार पद्मप्रभमलधारी देव पर है, और यह प्राय ठीक जान पडता है।
चौथे विभागमे, प्रवचनसारकी गाथाओका विचार करते हुए, यह प्रकट किया गया है कि अमृतचन्द्र की टीकाके अनुसार गाथा-सख्या २७५ है, जबकि जयसेनकी टीका परसे वह ३११ उपलब्ध होती है और ये बढी हुई गाथाएँ तीन भागोमे बाँटी