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युगवीर-निवन्धावती
ग्रंथ भी पाहुड ( प्राभृत) सज्ञाके धारक है और उदाहरण के तौर पर 'जोगीपाहुड' तथा 'निद्धपाहुड' ऐसे दो नाम भी पेश किये गये हैं, जो 'जैनगथावली' के पृष्ठ ६२ और ६६ पर दर्ज हैं। परन्तु इनके श्वेताम्बर होनेका और कोई प्रमाण नही दिया है । मात्र वेताम्वरी द्वारा प्रकाशित 'जेनप्रथावली' में दर्ज होनेने ही वे श्वेताम्बर नही हो जाते। इस प्रथावली तो पचासो ग्रथ ऐसे दर्ज हैं जो दिगम्बर हैं और इस वातसे प्रो० साहब भी अपरिचित नही है । सभव है उन्हें किसी दूसरे आवारसे इन ग्रंथोंके श्वेताम्बर होनेका कुछ पता चला हो और वे उसका उल्लेख करना भूल गये हो । परन्तु कुछ भी हो, जोणीपाहुड तो दिगम्बर ग्रंथ है ही । उक्त ग्रंथावलीमे भी उसे धरसेनाचार्यकृत लिखा है, जो कि एक दिगम्बराचार्य हुए हैं, और उसीके पुष्ट करनेके लिये बृहट्टिप्पणीका यह वाक्य भी उद्धृत किया है - " योनिप्रामृतं वीरात् ६०० धारतेनम्" । अस्तु, इस ग्रथकी जो जीर्ण-शीर्ण एव खण्डित प्रति पूनाके भण्डारकर इन्स्टीटयूटमं मोजूद है और जिसे देखकर प० बेचरदासजीने एक नोट लिखा था उससे मालूम होता है कि यह ग्रंथ 'पण्ह-सवण' ( प्रश्नश्रवण ) मुनिके द्वारा पुष्पदन्त और भूतवलि शिष्यों के लिये लिखा गया है । 'इय पण्हसवण- रइए भूयवली- पुष्कयंतआलिहिए' इत्यादि वाक्यो परसे उसका समर्थन होता है । चूँकि भूतवलि और पुष्पदन्त मुनिके गुरुका प्रसिद्ध नाम 'धरसेन' था इसीसे शायद वृहट्टिप्पणीमे 'प्रश्नश्रवण' की जगह 'धरसेन' नामका उल्लेख किया गया जान पडता है । 'धवला' टीकामे भी 'जोणीपाहुडे मणिदमंततंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागोत्ति घेतव्वा' इस प्रकारके वाक्य द्वारा इसी ग्रथका उल्लेख पाया जाता है । रही 'सिद्धपाहुड' की वात, उसके और उसकी टीका तकके