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युगवीर-निवन्धावली कितने ही वाक्योको जानबूझकर छोड दिया है और उस छोडनेकी सूचना तक करना भी अपना कर्तव्य नही समझा है। ऐसा आचरण मेरी रायमे आध्यात्मिक प्रकृतिके विरुद्ध है । यदि किसी तरह यह मान भी लिया जाय कि उन्होंने इसी दृष्टिसे उक्त १४ गाथाओको छोडा है तो फिर शेष २२ गाथाओको छोडनेका क्या कारण हो सकता है ? उन्हे तो तव निरापद् समझकर टीका मे जरूर स्थान देना चाहिये था। दूसरे अध्यायके मगलाचरण तककी एकमात्र गाथाको स्थान न देना और उसे दूसरे अध्यायोसे भिन्न विना मगलाचरणके ही रखना इस बातको सूचित करता है कि अमृतचन्द्र सूरिको मूलका उतना ही पाठ उपलब्ध हुआ है जिसपर उन्होने टीका लिखी हैउन्होंने जानबूझकर मूलका कुछ भी अश छोडा नही है। रही साम्प्रदायिक वादविवादमे न पडनेकी बात, इसका कुछ भी मूल्य नही रहता जब हम देखते हैं कि खुद अमृतचन्द्रने अपने 'तत्त्वार्थसार' मे, जो कि एक प्रकारसे उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका व्याख्यान अथवा पद्यवार्तिक है, निम्नपद्यके द्वारा यह घोषणा की है कि 'जो साधुको सपथ ( वस्त्रादिसहित ) होने पर भी निर्ग्रन्थ बतलाते हैं और केवलीको ग्रासाहारी ( कवलाहारी) ठहराते हैं वे विपरीत मिथ्यात्वके अन्तर्गत है' और इस तरह साफ तौरपर श्वेताम्बरोपर आक्रमण किया है -
सग्रन्थोऽपि च निर्गन्थो ग्रासाहारी च केवली। रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम् ॥५-६॥ इसी सिलसिलेमे पृष्ठ ५४ पर एक फुटनोट-द्वारा अमृतचन्द्र सूरिके श्वेताम्बर होनेकी कल्पनाका भले प्रकार निरसन करते हुए और प्रमाणमे उक्त 'सग्रन्थोऽपि च' पद्यको भी उदधृत करते हुए यह प्रकट किया गया है कि चूँकि अमृतचन्द्रने समयसारकी