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युगवीर-निवन्धावली पाई जाती है, और इससे वे दिगम्बर सम्प्रदायके व्यवहार-सूत्रकी ही गाथाएँ जान पडती है, जो इस समय अपनेको अनुपलब्ध है। रही 'पदार्थ' की जगह 'तत्त्व' और 'तत्त्व' की जगह ‘पदार्थ शब्दका प्रयोग करना, यह एक साधारण-सी वात है-इसमे कोई विशेप अर्थभेद नही है-दिगम्बर साहित्यमे तत्त्वके लिये पदार्थ और पदार्थके लिये तत्त्व शब्दका प्रयोग अनेक स्थानो पर देखनेमे आया है। इसके सिवाय, समयसारकी १३वी गाथामे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष नामकी ६ वस्तुओका उल्लेख करके 'तत्व' या 'पदार्थ' ऐसा कुछ भी नाम नहीं दिया गया-मात्र उनके भूतार्थनयसे अभिगत करनेको 'सम्यक्त्व' बतलाया है । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्दका अभिप्राय उन्हे टीकाकारके अनुसार 'नवतत्त्व' कहनेका नही था ? यदि कुदकुदका अभिप्राय इसके विरुद्ध सिद्ध नही किया जा सकता तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि अमृतचद्रने श्वेताम्बर साहित्यपरसे 'नवतत्व' की कल्पना की है। नवपदार्थमेसे पुण्य-पापको निकाल देनेपर जव सप्ततत्त्व ही अवशिष्ट रहते हैं तो उनमे पुण्य-पापके तत्वोको शामिल करनेपर उन्हे 'नवतत्त्व' कहनेमे क्या आपत्ति अथवा विशिटष्ता हो सकती है ? कुछ भी नही । अत ऐसी साधारणसी बातोपर दिगम्बर-श्वेताम्बरके साहित्य-भेदकी कल्पना कर लेना ठीक मालूम नहीं होता। ___चौथे विभागके चतुर्थ उपविभागकी दूसरी धारामे, द्रव्यगुण-पर्यायके स्वरूप पर अच्छा प्रकाश डालते हुए और यह वतलाते हुए कि उमास्वातिने अपने 'तस्वार्थसूत्र' मे 'कुन्दकुन्दकी गुण-पर्याय-विषयक दृष्टिको पूरी तौरसे स्वीकार किया है, सिद्ध सेनकी तद्विषयक आपत्तियोका उल्लेख करके उन्हे अच्छे प्रभावक