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प्रवचनसारका नया सस्करण
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ढगसे सदोष सिद्ध किया है और यह स्पष्ट किया है कि कुन्दकुन्द और उमास्वातिने गुण - पर्यायके विपयमे जिस पक्ष ( पोजीशन ) को अगीकार किया है वह यथेष्ट रूपसे निर्दोष है। सिद्धसेनने न्याय-वैशेषिक और कुन्दकुन्दके पक्षोको मिलाकर उसमें गडबड अथवा भ्रान्ति उत्पन्न कर दी है ।
उक्त उपविभागकी पाँचवी धारामे, सर्वज्ञताके सिद्धान्तका कुन्दकुन्दकी दृष्टिसे स्पष्टीकरण करते हुए उसपर दूसरे दर्शनोकी दृष्टिसे तथा उपनिपदो आदिकी मान्यताओसे कितना ही प्रकाश डाला गया है, कुमारिलके आक्रमणका भी उल्लेख किया गया है और कुन्दकुन्दके मुकावलेमे उसकी नि सारता व्यक्त की गई है । अन्तमे सर्वज्ञताकी आवश्यकता तथा उसकी सिद्धिका विवेचन किया गया है, और इस तरह इस महत्वपूर्ण विपयके लिये प्रस्तावनाका आठ पृष्ठोका स्थान घेरा गया है, जो वहुत कुछ ऊहापोह एव उपयोगी तथा विचारणीय सूचनाओको लिये हुए है । इसी प्रकरणमे यह भी सूचित किया गया है कि जहाँ तक उपलब्ध जैनग्रथोसे सम्बन्ध है सर्वज्ञता - विपयक तार्किकवाद वास्तवमे समन्तभद्र ( ईसाकी दूसरी शताब्दी) से प्रारम्भ होता है । इससे पहिले उमास्वाति तथा कुन्दकुन्दादिके समय में सर्वज्ञना सिद्धान्तरूपसे प्रचलित थी उसे सिद्ध करनेकी शायद
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जरूरत नही समझी जाती थी । साथ ही, यह भी मूि गया है कि इसी समयके करीब जैनियोने अपनाया है जो कि तर्क पद्धतिके लिये विशेष उपयुक् उमास्वाति संस्कृतको अपनानेके लिये प्रथम जैन पिछली सूचनासे यह भी ध्वनित होता है कि भाष्यको 'स्वोपज्ञ' कहा जाता है उसे महक भी उ स्वातिकृत नही मानते हैं, क्योकि उदि
है।
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