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प्रवचनसारका नया सस्करण
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द्वारा कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रवाहुका शिष्य सूचित किया है, गाथा न० ६२ का अवलोकन नही किया है अथवा उस पर ध्यान नही दिया है, जिसमे श्रुतकेवली भद्रबाहुका जयघोष किया गया है। परन्तु ऐसा नहीं है, विचारके समय मेरे सामने दोनो गाथाएँ मौजूद थी और मैं इस बातसे भी अवगत था कि परम्परा-शिष्य भी अपनेको शिष्यरूपसे उल्लेख करते हुए देखे जाते हैं-परम्परा-शिष्यके उदाहरणोके लिये Annals of the B.O R I. vole xv में प्रकाशित जिस लेखको देखनेकी प्रेरणा की गई है वह भी मेरा ही लिखा हुआ है। फिर भी दोनो गाथाओकी स्थिति और कथन-शैलीपरसे मैने यही निश्चय किया है कि उनमे अलग-अलग दो भद्रबाहुओका उल्लेख है । पहली गाथामे वर्णित भद्रबाहु श्रुतकेवली मालूम नही होते, क्योकि श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमे जिन-कथित श्रुतमे ऐसा कोई खास विकार उपस्थित नही हुआ था जिसे उक्त गाथामे 'सदवियारो हूओ मासासुत्तेसु ज जिणे कहिय' इन शब्दो-द्वारा सूचित किया गया है-~-वह अविच्छिन्न चला आया था । परन्तु दूसरे भद्रवाहुके समयमे वह स्थिति नही रही थी--कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रोमे परिवर्तित हो गया था। इससे ६१ वी गाथाके भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं। ६२ वी गाथामे उसी नामसे प्रसिद्ध होनेवाले प्रथम भद्रबाहुका अन्त्य मगलके तौरपर जयघोष किया गया है और उन्हे साफ तौरसे 'गमक गुरु' लिखा है। इस तरह दोनो गाथाओमे दो अलग-अलग भद्रबाहुओका उल्लेख होना अधिक युक्ति-युक्त और बुद्धिगम्य जान पडता है ।
तीसरे विभागमें, कुन्दकुन्दके पाहुड ग्रथोका विचार करते हुए, २४ वें पृष्ठपर यह सूचना की गई है कि कुछ श्वेताम्बर