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जयधवलाका प्रकाशन
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'मगलस्यैव' किया गया है और तदनुसार उसका अर्थ भी गलत करना पडा है |
'ण च सजम - प्पसगभावेण' यह पाठ प्रसगको देखते हुए कुछ अशुद्ध एव अधूरासा जान पडता है और सशोधनकी अपेक्षा रखता है ।
(घ) पृष्ठ १४ पर उक्त पाठका जो हिन्दी अनुवाद प्रोफेसर साहबने दिया है वह इस प्रकार है
"जो पुण्यकर्मबन्ध के अभिलापी देशव्रती ( श्रावक ) हैं उन्हे मंगल करना उचित है, कर्मक्षयकी आकाक्षा रखनेवाले गुणी ( मुनियो ) को नही' ऐसा कहना भी उचित नही है, क्योकि पुण्यवन्धको हेतुत्वके प्रति उन्हे कोई विशेष भाव नही है, तथा इससे तो जो मगल सराग सयम है उसके ही सर्वथा त्यागका
प्रसग आयगा ।
और सयम प्रसग भावमे निर्वाणगमनके अभावका प्रसग नही हो सकता । सरागसंयम गुणश्रेणि निर्जराका कारण है और वन्धसे मोक्ष असख्येय गुणा ( अधिक उत्तम ) है, इसीसे सरागसयममे मुनियोका वर्तना योग्य है । अत ( मगलका ) प्रत्यवस्थान अर्थात् निराकरण नही करना चाहिये । अरहतका नमस्कार साम्प्रतिक वन्धसे असख्येय गुणा कर्मक्षयकारक है इससे उसमे भी मुनियोकी प्रवृत्तिका प्रसग आता है ।"
इस अनुवाद परसे विपयका ठीक स्पष्टीकरण नही होता - वह कितनी ही गडवडको लिये हुए जान पडता है । प्रथम पैरेग्राफमे 'क्योकि ' से प्रारम्भ होनेवाला अनुवाद विशेष आपत्तिके योग्य मालूम होता है । वहाँ मूलका भाव इस प्रकार है
'क्योकि पुण्यवन्धके हेतुत्व के प्रति ( दोनोमे ) कोई विशेष नही है - ऐसा नियम नही कि श्रावक तो पुण्यवन्धके कारणका